roop ki dhoop

तुम

मुग्ध मन की नयी लगन हो तुम
स्पर्श-कंपित मलय-पवन हो तुम
प्राण-मरू को सँवारने आयी
कुंतलों की घटा सघन हो तुम

भीत-चितवन, जड़ित-चरण हो तुम
चाँद-सी लिए प्रीति-व्रण हो तुम
काँपते अधर, अनकही गाथा
मर्म की वेदना गहन हो तुम

सृष्टि, अनयन, नयन-नयन हो तुम
प्राण की प्राण, मूर्त मन हो तुम
शून्य की शिखा फोड़कर निकली
चेतना की प्रथम किरण हो तुम

स्नेह-कूजित रसाल-बन हो तुम
रश्मि-रंजित गगन सघन हो तुम
दूधिया धूप शीत की कच्ची
चाँदनी से धुली किरण हो तुम

प्राण का पुलक, जागरण हो तुम
कामना की निशा गहन हो तुम
चेतना का सुनील नभ रँगती
प्रीति की लौ कनक-वरण हो तुम

1966