roop ki dhoop

पुरुरवा

कभी वसंत इधर से निकल गया होगा
पलाश-दग्ध अभी तक पुकारता हूँ मैं
चाँद जो छोड़ गया नील गगन को उसका
अदृश्य बिंब चतुर्दिक्‌ निहारता हूँ मैं

झनझनाया जहाँ सितार तुम्हारे स्वर का
आज हर ईंट वहाँ की मुझे बुलाती है
उर्वशी लौट गयी स्वर्गपुरी को, फिर भी
पुरुरवा मैं कि जिसे नींद नहीं आती है

1965