roop ki dhoop

बदरीनाथ के पथ पर

अज्ञात के बंधन नें बुलाया मुझको
पर्वत के समीरण ने बुलाया मुझको
भेजा था हिमालय ने जो गंगा के हाथ
उस पुण्य-निमंत्रण ने बुलाया मुझको

रंगीन दिशाओं ने उभारा मुझको
घनश्याम की वंशी ने पुकारा मुझको
तरुओं ने हिला हाथ किया मृदु संकेत
डालों ने दिया झुकके सहारा मुझको

छूती जो पहाड़ों को हवा नम आयी
की जैसे हिमालय ने प्रथम पहुनाई
माता किसी बालक को दुलारे जैसे
नदियों ने मुझे देख भुजा फैलायी

समतल से उठा शैल की शरणों में चला
घाटी में कभी झूमते झरनों में चला
गंगा के कभी तीर अलकनंदा के
मैं उस परम विराट्‌ के चरणों में चला

सुनसान अरण्यों ने लुभाया मुझको
सीने-से पहाड़ों ने लगाया मुझको
पीने को दिया क्षीर हरित ढूहों ने
हिमपूर्ण हवाओं ने झुलाया मुझको

घाटी में कहीं घाट बना देती-सी
पर्वत कहीं सपाट बना देती-सी
आवर्तभरी लोल लहरियों को उछाल
पानी के अजब ठाठ बना देती-सी

बल खाती हुई घूमती आयी गंगा
गौरी के चरण चूमती आयी गंगा
पीयूष धवल चाँद के आनन का चुरा,
नागिन की तरह झूमती आयी गंगा

शैलों के शिखर तोड़ती आयी गंगा
हिम-सेज धवल छोड़ती आयी गंगा
सुनते ही धरित्री के रँभाने की भनक
गैया की तरह दौड़ती आयी गंगा

चट्टान कहीं राह न देती देखी
गाँवों को कहीं गोद में लेती देखी
करवट कभी इस ओर तो कभी उस ओर
खेती तो कहीं तीर पे रेती देखी

ब्रह्मा के कमंडल से कढ़ी है गंगा
शिव-पाश से हँस छूट पड़ी है गंगा
असहाय भगीरथ की पुकारों से द्रवित
कैलास से यह आगे बढ़ी है गंगा

मुनियों ने इसे ज्ञान सहेजा अपना
पर्वत ने दिया काढ़ कलेजा अपना
निज क्षीर दिया कामदुहा वन्या ने
वरदान भूतनाथ ने भेजा अपना

जो सबसे बड़े उनसे बड़ी है गंगा
शंकर के भी मस्तक पे चढ़ी है गंगा
पापों की गढ़ी तोड़ गिराती पल में
वैकुंठ की सीढ़ी-सी खड़ी है गंगा

पर्वत से किलक कूदते झरने ऐसे
दौड़े हों हरिण दूब को चरने जैसे
दिख जाती है बाघिन-सी गरजती जो नदी
लगते हैं वहीं दूर सिहरने भय से

टक्कर से नया रूप निखर आता है
पारे की तरह नीर बिखर जाता है
देवों की हँसी फूट चली हो जैसे
या टूट हिमालय का शिखर आता है

उपलों में धवल धार फिसलती ऐसे
खरगोश के शिशुओं में गिलहरी जैसे
चाँदी की चमकती हुई चोटी से उतर
फिरती हैं फुदकती हुई परियाँ भय से

सीढ़ी-सी उतरती है अचल पर खेती
दिखती है कहीं दूर चमकती रेती
धारा में धवल वत्स-सदृश बैठे हैं
दिखती है नदी साँप-सी चक्कर लेती

जब दूर कुछ बढ़ा तो जगाता-सा विराग
काशी-सा त्रिशूलस्थ मिला देवप्रयाग
यमुना से मिली जाह्नवी जैसे आगे
गंगा के यहाँ पूर्व के मिलते दो भाग

आयी जो अलकनंदा अलक छितराये
द्रुत भागीरथी दौड़ी भुजा फैलाये
मिलती हों गले जैसे दो बिछुड़ी बहनें
बछड़ों से मिलें जैसे रँभाती गायें

चाँदी के हिंडोलों में पली हैं दोनों
चोटी से हिमानी की ढली हैं दोनों
गंगा ने बढ़ा हाथ छुए शिव के पाँव
या सास-बहू साथ चली हैं दोनों

हर पर्त नयी एक पहाड़ों की कतार
तागे-सी हरेक तह में पिरोयी जलधार
क्षीरस्वती कहीं तो कहीं ऋषिगंगा
बदरीश कहीं हैं तो कहीं हैं केदार

गौरी ने चरण हर का पखारा है यह
पानी की नहीं, दूध की धारा है यह
नंदी-सा खड़ा पास विनत-शिर हिमवान्‌
नटराज के मंदिर का उतारा है यह

हिम-श्रृंग-भाल, चंद्र बाल वय का है
शत-कोटि भुजा, नाद जलद-लय का है
फुफकार रहीं नाग-सी नदियाँ कटि में
नटराज का स्वरूप हिमालय का है

हर ओर प्रपातों ही प्रपातों का प्रकाश
धरती पे गिरे टूट के जैसे आकाश
शंकर की जटाओं से कढ़ी ज्यों गंगा
रावण की भुजाओं ने उठाया कैलाश

चाँदनी इसे दूध से नहलाती है
सूरज की किरण हार-सा पहनाती है
लगता है कि दुलहन कोई घूँघट काढ़े
कुहरे से हिमानी जो झलक जाती है

राधा है कहीं मेघ की चूनर ओड़े
वंशी पे झुके श्याम शिखर मुँह मोड़े
चलता है अमर रास गगन के नीचे
उस एक के दिखते हैं हजारों जोड़े

पदचिह्न नहीं कोई कहीं संग न साथ
हर ओर से ठुकराया हुआ, दीन, अनाथ
हिमवान्‌ तेरी गोद में आ पहुँचा मैं ।
सुनता हूँ यहीं हैं पर कहीं बदरीनाथ

ऋषियों ने जहाँ बैठ किया था गायन
करते थे जहाँ व्यास अमर पारायण
देवों का परम धाम जहाँ अब तक भी
हैं इधर खड़े नर तो उधर नारायण

हिमवानू है, गंगा का किनारा भी है
मेघों ने मुझे दूर पुकारा भी है
धरती से तो उठता हुआ आया नभ तक
उस पार पहुँचने का सहारा भी है!

पूनो का पड़ा चाँद जो दिखलायी है
पत्री है तुम्हारी कि यहाँ आयी है
लायी है हवा दूर क्षितिज से संदेश
दूबों में भरी रात को अँगड़ाई है

अब शैल के चरणों से विदा लेता हूँ
इन दूध के झरनों से विदा लेता हूँ
विवरण तो लिखा प्राण की हर धड़कन
बस बाहरी वर्णो से विदा लेता हूँ

आया हूँ जिसे छोड़ अनूठा ही है
इस राह का हर मोड़ अनूठा ही है
शंकर का जहाँ धाम है, उस भूतल का
भूतल पे नहीं जोड़, अनूठा ही है

1967