roop ki dhoop

सीता-वनवास

था राम को वनवास न दुख का कारण
सँग बंधु, वधू, प्रेम पिता का, जन-मन
रण जीत फिरे और सदन में हारे
हे प्रिया-विकल भूप! तुम्हें शत वंदन

शोणित से नहीं अश्रु से धुले हैं पृष्ठ
क्या स्वर्ण, रत्न से भी अनतुले हैं पृष्ठ
है राम से बड़ा ही सती का वनवास
तुलसी के बिना लिखे जो खुले हैं पृष्ठ

प्रभु पिता-वचन-हेतु गये वन के धाम
इस त्याग में था भोग का सुख और सुनाम
अपयश सहा, वियोग भी, वनवास के साथ
इसलिये प्रथम सीता कहें पीछे राम

जो बात है यथार्थ कही जायेगी
हमसे तो यह चुप्पी न सही जायेगी
सीता के आँसुओं का उमड़ता सागर
तुलसी की कलम लाँघ नहीं पायेगी

राज्यागरोहण भी वनवास-सा ही बीता
मन तो वहाँ था जहाँ प्रिया थी पुनीता
और उधर सती भोगती थी राज्य पति का
सीता में राम और राम में थी सीता

1967