roop ki dhoop

हरिद्वार की गंगा के किनारे

संध्या ने बिखेर दिये बादल उदासी के
पर्वत खड़े हैं मौन घाट जैसे काशी के
सूरज हलवाहा थका लौट रहा घर की ओर
अंधकार फैल रहा प्राण में प्रवासी के

जीवन के दाँव सभी हार चला आया मैं
प्यारभरी सुनके पुकार चला आया मैं
धार में भिगोने चेतना के निराधार पंख
तीर जाह्ववी के तार-तार चला आया मैं

अंग में उमंग ही उमंग लिये आयी है
शिव की विभूति निज संग लिये आयी है
जैसे आ गया मैं रंग-ढंग अस्त-व्यस्त लिये
यह भी कुछ वैसी ही तरंग लिये आयी है

सोते और जागते हृदय में जिसे धारा है
डूबते मुझे तो इसी धारा ने उबारा है
शांत हुए दीखते विरोध सभी जीवन के
तीर जाह्ववी का नहीं स्वर्ग का किनारा है

महिमा में इसकी न तिल भर अत्युक्ति है
यही भव-मुक्ति, पराभव से विमुक्ति है
काम-कपिलाग्नि में झुलस चुके जीवन को
शांति से सहेजने की एक यही युक्ति है

होता यदि मीन तो लहर में किलोलता
मृग-शिशु होता यदि तीर-तीर डोलता
होता गंधवाह तो सुगंध घोल देता यहीं
होता जो स्वतंत्र निज मंत्र यहीं बोलता

तिमिर-घटाओं में प्रकाश बन जाता मैं
व्यथा बढ़ती तो मृदु हास बन जाता मैं
विष-सी पचाके निज मर्म-वेदना की पीर
विश्व के लिये तो कालिदास बन जाता मैं

जीवन की गति का विराम कभी होना है
कृति का कृतिकार को प्रणाम कभी होना है
माता! पहिचान ले, सुरम्य इन्हीं लहरों में
मेरा भी धवल एक धाम कभी होना है

सारे उर-शूल तुझे सौंप चला जाऊँगा
जीवन दुखमूल, तुझे सौंप चला जाऊँगा
मुट्ठी भर धूल छोड़ काल की अकूलता में
पत्ते और फूल तुझे सौंप चला जाऊँगा

लहर-लहर में है रजत हास इंदु का
इंदु में लहराता विभास क्षीरसिंधु का
सिंधु में कहीं पर क्षीरशायी के (से) चरण-तले
अंकित रहेगा इतिहास एक बिंदु का

1967