roop ki dhoop
योग-वियोग
1
रात है आज भग्न हारों की
काँपते दीप, रुँधे ज्वारों की
भूमि पर सिसक रही कलियों की
व्योम पर तड़प रहे तारों की
2
प्रेम तो तार नहीं ऐसा क्षीण
देखकर भी न देख पाओ तुम
बात यह और है कि धुन न सुनो
बात यह और है, न गाओ तुम
3
सब पुण्य और पाप समझता हूँ मैं
जो कह न सकीं आप समझता हूँ मैं
तुम जानके अनजान-सी क्यों रहती हो
यह प्राण का परिताप समझता हूँ मैं
4
प्यार का फूल यह, खिले न खिले
विश्व की यवनिका, हिले न हिले
आज जी भरके देख लेने दो
कल मधुर रात यह, मिले न मिले
5
बात कुछ, देखा-न-देखा, हो गयी
पर अलंघ्या एक रेखा हो गयी
सिंधु हाहाकार करता ही रहा
बादलों में चंत्रलेखा खो गयी
6
प्रीति जग से नवीन की तुमने
फूँककर विरह-बीन दी तुमने
अश्रु का भर समुद्र आँखों में
हँसी ओंठों की छीन ली तुमने
7
आपसे दो बात होकर रह गयी
रंग की बरसात होकर रह गयी
चाँद बदली के न बाहर आ सका
रात, काली रात होकर रह गयी
8
बात बन जाय वही बात अब बनाओ
प्राण में रहो, भले हाथ नहीं आओ
बाहुओं में न बँधे रूप बहुत इतना
मैं तुम्हें देख सकूँ और तुम लजाओ
9
शुष्क तृण-पात तो न था कोई
एक जीवन, समस्त जीवन था
तुम जिसे रौंद बढ़ गयी आगे
हाय! वह एक कुँवारा मन था
10
न छलक जायँ पात्र नयनों के
गीत का स्वर न मौन हो जाये
कहीं ऐसा न हो कि पिछली रात
रूप जब जगे, प्रेम सो जाये
11
तुम जो दुविधा में रही प्रेम की विवशता की
तीर इस भाव से फेंका कि पार हो न सका
मैं तड़पता ही रहा पीर लिये प्राणों में
मरके भी मर न सका, हँस न सका, रो न सका
12
काँप जायें न कहीं हाथ विगत स्मृतियों से
प्राण में तीर चुभाकर न, प्रिये | रुक जाना
यातना प्रेम की सह लूँगा मैं, दया न कभी
टूट जाना मुझे स्वीकार, नहीं झुक जाना
13
पुतली के अक्षर, भ्रू-चाप झुका रेखा-सा
उर-हिम-शिला पर लिखा सुख-दुख का लेखा-सा
प्रेम की समाधि-सी खड़ी हो तुम सामने
देखते हुए भी करता मैं अनदेखा-सा
14
अधरों का कहीं कोष लुटाती ही हो
नयनों का कहीं स्नेह चुआती ही हो
उपवन में हमारे भी खिला दो न कभी
आख़िर तो कहीं फूल खिलाती ही हो
15
खो गयी तुम जगत के रेले में
यों तड़पता हूँ मैं अकेले में
अपने माता-पिता से छूटा हुआ
जैसे बालक हो कोई मेले में
16
मेघ को दामिनी बुलाती है
चाँदनी चाँद के सँग जाती है
मिल रही है लहर लहर के साथ
याद मेरी न तुम्हें आती है?
17
तन, प्राण, नयन घेर लिये हैं तुमने
निज पर बड़े अँधेर किये हैं तुमने
वह गंध कभी फिर न सकेगी मन से
माना कि सुमन फेर दिये हैं तुमने
18
धूल में फूल खिला करते हैं
डाल पर शूल हिला करते हैं
अन्य को तुम, मुझे तुम्हारी याद,
भाग्य प्रतिकूल मिला करते हैं
19
बोलना किसीसे, देख लेना किसी और को
हृदय किसीका छीन, देना किसी और को
आपकी कला थी, किंतु काल बनी प्राण की
नाव में बिठाके मुझे, खेना किसी और को
20
अब भले ही नजर न आती हो
प्राण के बीच मुस्कुराती हो
इसे बिछूड़ना कहूँ या मिलना!
और भी पास हुई जाती हो
21
प्रेम में सब प्रतीप होता है
दूर ज्यों-ज्यों, समीप होता हो
छेड़ता तार आप वादक को
तम सुलगकर प्रदीप होता है
22
यह दिनों-दिन अधिक उमड़ता है
दूर ज्यों-ज्यों विशेष बढ़ता है
आँच में तप वियोग की प्रतिपल
प्रेम पाता नवीन दृढ़ता है
23
प्राण का हास जहाँ खिलता है
देह का राग वहीं मिलता है
भावना से भरे दृगों से ही
आँसुओं का समुद्र झिलता है
24
वरुणियों ने समुद्र बाँधे हैं
गेह के दीप मौन साधे हैं
तुम नहीं तो अपूर्ण हैं जीवन
देह आधी है, प्राण आधे हैं
25
रात के पास नया चाँद चमकता तो है
क्या हुआ एक तुनुक तेज सितारा न रहा।
हैं वही फूल, वही भ्रमर, वही मधु-गुंजार
क्या बड़ी बात हुई, मैं जो तुम्हारा न रहा!