roop ki dhoop

रूप की धूप

1
भूमि की साध, विहग बन जाये
व्योम की, भूमि उमग बन जाये
साध मेरी कि भू-गगन से दूर
प्रेम का लोक अलग बन जाये

2
हर फूल की सुगंध निचोड़ी मैंने
अनुभूति मधुर एक न छोड़ी मैंने
सब आयु चढ़ी रूप-भावना की भेंट
कुछ वस्तु यहाँ ठोस न जोड़ी मैंने

3
नाप लें दिगंत, बाज के-से नहीं पर दो
जन-मनहारी कोकिला के नहीं स्वर दो
कच में समोद जिसे गूँथ लें तरुणियाँ
वन का अजान वही फूल मुझे कर दो

4
मेरा रूप तेरा रूप एक बन जाने दे
धूप और छाँह एकमेक बन जाने दे
अंतरे अनेक रहें जीवन की रागिनी में
प्रेम को परंतु ध्रुव टेक बन जाने दे

5
हर दीप नयी दे गया जलन मुझको
नव बंध बना हर प्रसून-मन मुझको
मैं नीड़ जिसे तडित्‌ हुआ हर बादल
हर रूप बना एक नया व्रण मुझको

6
हर फूल अतनु-बाण नहीं होता है
हर दीप अंशुमान नहीं होता है
हर रूप पर न प्राण निछावर होते
हर देवता भगवान नहीं होता है

7
हर बूँद आँसुओं की नहीं मोती है
हर आह न बिजली की फसल बोती है
हर प्रीति महाकाव्य नहीं बन जाती
हर वेदना इतिहास नहीं होती है

8
शब्द में ज्योति का परस है आज
भाव, गति, लय अलस-अलस है आज
गुनगुना दिया तुमने अधरों से
गीत में और नया रस है आज

9
मैं मरण में भी नहीं रीता रहूँगा
प्रिय! तुम्हारी धड़कनें पीता रहूँगा
काल के विष-दंत को देता चुनौती
मैं तुम्हारी आयु में जीता रहूँगा

10
लहर बढ़ी तो किनारों की याद आने लगी
किरण चढ़ी तो सितारों की याद आने लगी
हुए आकंठ प्राण जब तो पुकारा तुमको
कली झड़ी तो बहारों की याद आने लगी

11
लहर बढ़ी तो किनारों को छूटते देखा
किरण चढ़ी तो सितारों को टूटते देखा
बहार आयी तो फूलों की नींद आयी थी
खिले जो फूल बहारों को रूठते देखा

12
दीप से पतंग ने प्रकाश नहीं माँगा था
भ्रमर ने कली से मधुमास नहीं माँगा था
रूप को तनिक देखना भी पाप हो गया!
मैंने त्तो तुम्हाग भुजपाश नहीं माँगा था

13
रंग झुतिहीन हुए, चित्र उतरता ही रहा
धुन अमर जीवन की, राग बिखरता ही रहा
दीप तारों के रहे एक न दिन उगने तक
प्रेम के नेत्र मुँदे, रूप सँवरता ही रहा

14
दीप की तृषा है कि पतंग बन जाऊँ मैं
साध है पतंग की अनंग बन जाऊँ मैं
कवि की उमंग यही प्राण की तुम्हारी, प्राण!
चेतना-तरंग सप्त-रंग बन जाऊँ मैं

15
चाँदनी को पीत, क्षयी चाँद नहीं भाया
नृत्य-मद-मत्त गले सिंधु को लगाया
चाँद विष पीके गया लेट व्योम-पथ पर
प्रिया फिरी प्रात, किंतु बोल नहीं पाया

16
गीतों को छाँह तले प्रेम हुआ पहला
सपनों में नभ-गंगा-तीर किये टहला
जग देखा तप्त, स्याह सड़कों से तुमको
सजते किसीका रंगमहल तिमहला

17
गहन इस नील नभ के पार भी नभ दूसरा कोई
अमर आलोक, देवों का जहाँ आवास सचमुच है
नयन की नीलिमा के पार जैसे मन तुम्हारा हैं
कि मन के पार भी जैसे मधुर अव्यक्त-सा कुछ है

18
रूप में ताप है, तरलता है
बाँकपन है, बड़ी सरलता है
है हजारों कलश सुधा इसमें
तेज, तीखी, तनिक गरलता है

19
चाँदनी दूध की नहाई-सी
चंचला आग की तपाई-सी
रूप की विमल पारदर्शी छवि
दृष्टि में भर रही गुराई-सी

20
रूप को चरण चरण देखा है?
साध का चीर-हरण देखा है?
फूल तो वरण-वरण के देखे
लाज को निरावरण देखा है?

21
ज्योति-सी उमड़ चली लगती है
स्वर्णणय गली-गली लगती है
श्याम घन-केश हटा लो मुख से
रूप को धूप भली लगती है

22
जागता प्रेम और रोता है
रूप दृग बंद किये सोता है
जल रहे हैं पतंग उड़-उड़कर
दीप के लिये खेल होता है

23
चाँद का दाग कहीं छूटता है!
पूर्व अनुराग कहीं छूटता है।
माँग सिंदूर से भरो कितनी
प्राण का फाग कहीं छूटता है!

24
स्नेह तुल रहा चाँदनी में आज
चाँद घुल रहा चाँदनी में आज
दूधिया हँसी, अंग केसर-से
रंग खुल रहा चाँदनी में आज

25
चाँद से किरण छूटती रहती
सिंधु कौ लहर टूटती रहती
रूप निःस्पंद हो नहीं पाता
मंद मुस्कान फूटती रहती

26
मूक अभिमान बना रहता है
ओंठ पर गान बना रहता है
जानकर भी स्वरूप से अनजान
रूप मुस्कान बना रहता है

27
बाल बिखरे कि सँवारा है रूप
नेत्र सकुचे कि उभारा है रूप
माँग सिंदूर, पग महावरदार
और भी आज कुँवारा है रूप

28
है जहाँ मेघ वहीं बिजली है
है जहाँ फूल वहीं तितली है
रूप की मृण्मयी शिखा से ही
प्रेम की अमर ज्योति निकली है

29
न तुम्हारा न हमारा है रूप
फूल है, ओस है, पारा है रूप
साँझ की धूप, चमक बिजली की
डूबता भोर का तारा है रूप

30
अर्ध-निशि की मदिर झकोर है रूप
चिर-अनासक्त, चिर-किशोर है रूप
चेतना के सुनील सागर में
चाँदनी की धवल हिलोर है रूप

31
सृष्टि को बाँध रही डोर है रूप
चाँद है, चाँदनी, चकोर है रूप
श्याम घन-रोर कि बन-मोर-छटा
मुग्ध मन की मधुर मरोर है रूप

32
फूल तरु-अंक रहे तो कैसे?
प्रेम निःशंक रहे तो कैसे?
अंक लगते कलंक लगता हैं
रूप अकलंक रहे तो कैसे!

33
प्रेम की प्रथम चेतना है रूप
मर्म की मूर्त वेदना है रूप
व्यक्त मुस्कान-सी विधाता की
सृष्टि कौ अमर प्रेरणा है रूप

34
फूल के हास से बना है रूप
चाँद की छाँह से छना है रूप
चेतना-मुकुर, प्रेम का प्रतिबिंब
ईश की आत्म-कल्पना है रूप

35
चाँद के पास चाँदनी होगी
फूल के पास रागिनी होगी
ज्योति होगी सदैव दीप के पास
पास मेरे तुम्हीं नहीं होगी

३6
रात को रूप की जवानी दो
रूप को रात की कहानी दो
स्नेह की आँच ठिठुरते उर को
है जहाँ आग लगी, पानी दो

37
प्रीति के सुमन खिला देती हो
लाज की नींव हिला देती हो
चाँदनी रात और ऐसी हँसी!
दूध में शहद मिला देती हो

38
हर्ष, दुख, त्रास मधुर होता है
प्रेम, उल्लास मधुर होता है
हो लिखी रूप की कथा जिसमें
वही इतिहास मधुर होता है

39
बात का तौर मधुर होता है
मौन तो और मधुर होता है
मोहिनी है हरेक अदा इसकी
रूप का दौर मधुर होता है

40
फूल की हर पंखड़ी मधुमास है
प्रति लहर गति, किरण-किरण प्रकाश है
रूप की हर साँस मादकताभरी
प्रेम का प्रत्येक पल इतिहास हैं

41
विश्व क्षण में समोद जीता है
रूप की श्वेत आग पीता है
मैं क्षितिज पार मिल रहा तुमसे
आयु का पूर्व जहाँ बीता है

42
स्वप्न की रात है, कुहासा है
कामना की अशब्द भाषा है
प्रेम की अमृतमय तरंगों में
रूप घुलता हुआ बताशा है

43
वेदना पोर-पोर में भर दो
प्रेम की भावना अमर कर दो
रूप के घन सघन घुमड़ते हों
प्राण को चिर-अतृप्ति का वर दो

44
दृष्टि की एक घात होती है
प्रेम की एक बात होती है
जो विजय की घड़ी पराजय की
रूप की एक रात होती है

45
घात पर घात बड़ी होती है
प्रेम की मात बड़ी होती है
रात बस एक मिलन की छोटी
और हर बात बड़ी होती है

46
मेघ होंगे न दामिनी होगी
ज्योति से ज्योति बाँधनी होगी
एक होंगे हीं क्षितिज के पार
और चिर-मिलन-यामिनी होगी

47
फूटे हुए दर्पण को उठा लेता हूँ.
मुँह चूमके छाती से लगा लेता हूँ
टूटा हुआ प्रतिबिंब नहीं जुड़ पाता
टूटे हुए मन को तो जुड़ा लेता हूँ

48
अपनी ही छाया हर बार अड़ी दिखती है
लहरों में रश्मिल दरार पड़ी दिखती है
मैं हूँ वही, तुम वही हो किंतु बीचों-बीच
शीशे की जैसे दीवार खड़ी दिखती है

49
आपका मंद मुस्कुराना सत्य है कि नहीं!
मिलन का यह मधुर बहाना, सत्य है कि नहीं!
प्रेम का बोझ तो माना कि उठ नहीं सकता
एक पल किंतु बहक जाना, सत्य है कि नहीं!

50
साँप को अपने जहर का गुमान रहता है?
मोर को पंख के रंगों का ज्ञान रहता है?
आपको, देखने, हँसने से, बोल लेने से
बीतती हम पे जो, उसका भी ध्यान रहता है ?

51
तारों को छुऊँ ऐसे कि झंकार न हो
आँखों से मिले आँखें और प्यार न हो
सोयी ही रहे साध मधुर अंतर में
जाने उन्हें स्वीकार हो, स्वीकार न हो
52
चेतना में कहीं विरोध न हो
भग्न प्रतिबिंब देख क्रोध न हो
मैं तुम्हारी अनन्यता पा लूँ
प्राण में रहूँ और बोध न हो

53
जो तुम्हारे प्राण का अनुराग सब मेरे लिए है
जो सुगंधित चेतना की आग सब मेरे लिए है
मैं उपेक्षित यदि रहा तो चाँदनी रोती रहेगी
जो तुम्हारा रूप और सुहाग सब मेरे लिए है

54
प्यार में अंग-अंग बजता है
दूर जैसे मृदंग बजता है
नेत्र से बँधा आँसुओं का तार
प्राण में जल-तरंग बजता है

55
प्रेम की देवी हो तुम, रूप का पुजारी मैं
आँसू से सींच रहा मन की फुलवारी मैं
देकर भी सब कुछ तुम प्रीति की अलभ्य शिखा
पाकर भी सब कुछ चिर-तृषार्त, चिर-भिखारी मैं

56
चकोर चाँद से ललक मिल जाय
भूमि से स्वर्ग का फलक मिल जाय
एक पल, प्रिये! मुस्कुरा दो तुम
स्वप्न में सत्य की झलक मिल जाय

57
रात यह प्रात हुई जाती है
स्वप्न हर बात हुई जाती है
तुमको मिलने में झिझक और यहाँ
जिंदगी मात हुई जाती है

58
फूल को चाँद की चमक मिल जाय
चाँद को फूल की महक मिल जाय
तुम मुझे एक बार मिल जाओ
भूमि को स्वर्ग की झलक मिल जाय

59
चाँदनी रात है, सन्नाटा है
क्या अभी मन में कोई काँटा है!
बाँट दो तुम भी खुले हाथों आज
जो विधाता ने तुम्हें बाँटा है

60
चाँदनी रात, और कुछ भी नहीं!
स्निग्ध भ्रू-पात और कुछ भी नहीं!
वात लेकर उड़ी सुमन की गंध
बात ही बात और कुछ भी नहीं।

61
रूप की चिर-अरूप भाषा है
प्रेम पीकर सदैव प्यासा है
चाँदनी की सुधा न कम होती
चाँद का प्रेम नित नया-सा है