sab kuchh krishnarpanam
देश अनजाना रहे तो क्या! तुम मुझे पहचान लेना
रूप अनचीन्हा रहे तो क्या! भाव मन का जान लेना
बाँधकर मुस्कान की मृदु डोर से
खींच लेना हृदय अँकुसी-सी झुकी दृगकोर से
मीत, प्रेमी, बंधु, कुछ भी मान लेना
तीर से लहरें बिछुड़ती ही रहीं
तितलियाँ मिलकर सुमन से दूर उड़ती ही रहीं
भ्रम, चिरंतन साथ का हठ ठान लेना
देश अनजाना रहे तो क्या! तुम मुझे पहचान लेना
रूप अनचीन्हा रहे तो क्या! भाव मन का जान लेना
मार्च 85