sab kuchh krishnarpanam

धीरे-धीरे उतर रही है मेरी संध्या-वेला

बीत गया दिन गाते-गाते
मधुर स्वरों के महल उठाते
श्रोता एक-एक कर जाते

उखड़ रहा मेला है

डूब रही है किरण सुनहरी
बढ़ी आ रही तम की लहरी
आगे एक गुफा है गहरी

जाना जहाँ अकेला

कल जो इस तट पर आयेगा
मेरा दर्द समझ पायेगा!
क्या कोई कल दुहरायेगा

यह गायन अलबेला?

धीरे-धीरे उतर रही है मेरी संध्या-वेला

May 85