sab kuchh krishnarpanam
मेरा मन विश्राम न जाने
नये-नये रूपों में सजकर नित नव कौतुक ठाने
उड़कर कभी असीम गगन में
पहुँचे अलका में, नंदन में
कभी अमरता के दर्पण में
अपना रूप बखाने
तन पर तो लहरों के पहरे
यह न कभी पर तट पर ठहरे
डूबे जहाँ सिन्धु हैं गहरे
जाल शून्य में ताने
कैसे शांति घड़ी भर पाये!
कौन इसे तुझ तक पहुँचाये!
अमृत-सरोवर से फिर आये
मृग-जल में सुख माने
मेरा मन विश्राम न जाने
नये-नये रूपों में सजकर नित नव कौतुक ठाने