sab kuchh krishnarpanam

हम सब खेल खेलकर हारे
तन के खेल, खेल कुछ मन के

झूठे थे वे सारे

बैठे सतत अहम् के रथ पर
फिरे कीर्ति-वैभव के पथ पर
नित नव संकल्पों के अथ पर

क्या-क्या रूप न धारे!

आज कहाँ वे संगी-साथी!
महल-दुमहले, घोड़े-हाथी!
जब हर तरुणी तिलोत्तमा थी

दिन वे कहाँ हमारे!

जी करता है आँखें मींचे
सो जाएँ इस तरु के नीचे
कोई अब यह हाथ न खींचे

कोई अब न पुकारे

हम सब खेल खेलकर हारे
तन के खेल, खेल कुछ मन के

झूठे थे वे सारे

Sept 85