seepi rachit ret

कवियों से

रत्ल-जड़ित पिंजरे में तुमने काव्य-विहग को बंद किया,
बाँध दिये पर उसके रेशम और स्वर्ण के तारों से
जैसे रवि संध्या-दिगंत को, निज में राग-मरंद पिया
घेर कला का भवन कलात्मकता की दृढ़ दीवारों से।

गूँज न पाया स्वर उसका तारों से मिला, सधा-साधा,
गृह-प्रांगण के पार, मुक्त नभ के नीले सोपानों पर
चढ़ न सका बह, कृत्रिम गति, श्रृंगार-समृद्धि बनी बाधा,
भार-रूप-सा शब्द-जाल, पद-बंधन उच्च उड़ानों पर।

फिरा छानता अपने खग के पीछे पर्वत, घाटी, मैं,
डाल-डाल वह उड़ा और मैं पात-पात पर जा बैठा
उसका स्वर दुहराता, मैंने कवियों की परिपाटी में
चरण न बाँधे उसके, कोमल पंखों को न कभी ऐंठा।

मेरा विहग स्वर्ग से भू की परिक्रमा देता क्षण में,
और क्षीण किलकारी भरता जग का, जग के आँगन में।

1941