seepi rachit ret

जब न रहूँगा में

जब न रहूँगा मैं तब भी तुम हँसा करोगी इसी प्रकार
समवयस्क मित्रों में? या चुपचाप किसी कोने में बैठ
बस बरसाती हुई दृगों से सावन-भादों की-सी धार
चिर-निर्धूम वर्तिका-सी, प्रिय! जल जाओगी निज में ऐंठ?

मधुर गीत, अभिनय, रस-व्यंजन सब अपने गुण देंगे छोड़,
कंचन स्वयं अकिंचन होगा या जीवन-धारा में दीन
कुछ दिन बहती हुई कली-सी तट की शोभा से मुँह मोड़
पुन: पूर्व-सी शत कार्यों में स्मित-मुख हो जाओगी लीन।

अनुदिन करुण-तरुण चरणों में निज प्राणों का स्नेह उड़ेल
पुनः तुम्हें प्रज्वलित प्रदीप-शिखा-सी भुजपाशों के बीच
कस लेगा बरबस कोई ? फिर से नव यही रचोगी खेल
मान, अश्रु, मनुहार, मोह के मद से तिर्यक भौंहें खींच?

नहीं रिक्तता टिक पाती है सरि-जल में पल भर को भी,
रिक्त रह सकेगा नारी का हृदय, प्रणय-मधु का लोभी ?

1941