seepi rachit ret

आँधी

नीले, पीले, लाल, बैंगनी, फूले हुए बादलों से
बदल रहा नभ का रँग प्रतिपल, लो बादामी आँधी ने
डब्बे-सा ढँक लिया धरा को, दिश-दिशि भीत बालकों-से
भाग रहे हैं मेघ, हाय! वे राजवसन किसने छीने?

उमड़ रहीं लहरें, अंबर के टुकड़े कट-कटकर गिरते
जल में, दिशा-यवनिका के पीछे सौ ज्वालामुखी फटे
एक साथ ज्यों, झुकीं परस्पर वे, संध्या-पथ पर फिरते
अभिवादन-रत नागरिकों-सी, रह न सके लो अचल डटे–

कायर सेनापतियों-से, चक्कर खा, अंतिम साँसें खींच
जड़ से उखड़े पेड़ गिर रहे, जिनकी हरी डालियों में
प्रमुदित हो पिक ने गाया था जब निर्जन-पथ मधु से सींच
आयी थी अल्हड़ वसंत-बाला झिलमिली जालियों में–

ढँकी हुईं। इससे भी कटुतर आँधी मेरे मन के बीच
उठती सदा, कौन देखे फूलों की मुँदी प्यालियों में।

1941