seepi rachit ret

वह रजनी

सजनी! वह रजनी भी कितनी सुंदर और सुनहली थी
त्रिभुवन की संपत्ति रही थी जब अपने चरणों पर लोट!
आह! सुनहली जिस रजनी में भेंट हमारी पहली थी
चुपके-चुपके हुई, चंद्रिका-गुंफित तम-झुरमुट की ओट!

सुंदर थी वह रजनी पहली कविता-सदृश आदि से इति,
वह पहला परिचय था कितना मृदु! कितना अनुरागभरा।
प्रथम स्पर्श-पुलकित अधरों पर वह पहली लज्जा की स्मिति
कितनी मादक थी! वह पहला चुंबन था कितना गहरा!

सजनी! उस रजनी में ही तो प्रथम बार आयी थी तुम
लज्जा में लिपटी-सी धीरे-धीरे प्रात पवन जैसे
मृदुल समर्पण को, अवगुंठित कर में लेकर विकच कुसुम
अनाघ्रात यौवन का, मेरे पास कुंठिता-सी भय से।

काल-समुद्र-मध्य वह रजनी लीन क्षुद्र कण-तुल्य हुई,
मेरे लिये आज उसकी स्मृति भी कितनी बहुमुल्य हुई।

1947