seepi rachit ret

विकलता

आह विकलते! हृदय-मरुस्थल में उठनेवाली आँधी!
ज्वालामुखियों के उर की विस्फोट-पूर्व की स्थिति-सी तू।
बिखर रही है तुझसे मेरी अणु-अणु की सत्ता बाँधी
त्रिभुवन भर में, क्या होगी इस महासृष्टि की इति-सी तू!

झूल उठेंगी शैल-श्रेणियाँ प्रलय-पवन के झोंकों से,
धरती को ठोकरें मारता उमड़ रहा है पारावार।
जग-अशांति की जननी! तू ही आज, वज्र की नोकों से
मेरे हृदय-गगन पर लिखती, मूत्यु नहीं, यंत्रणा अपार।

क्यों न चूर्ण हो गयी अभी तक टकराकर नक्षत्रों से,
यह धरती जो पूँजीभूत मानवी असफलताओं की
स्मारक-सी है? विवश झड़ रहे जो पतझड़ के पत्रों-से
मेरे अश्रु गला न सके क्‍यों यह जग-सृष्टि व्यथाओं की?

जहाँ न हो पीड़ा, दंशन, यह त्रिभुवनव्यापी आग जहाँ,
अरी विकलते! मुझे फेंक दे वहीं कहीं तू, किंतु कहाँ?

1941