seepi rachit ret
विरही
सोया-सोया देख रहा मैं खिड़की के बाहर अपलक,
जहाँ बिछी है रात चाँदनी, हिम-सी श्वेत, हुलासमयी।
पंख लगे होते तो उड़कर आज पहुँच जाता तुम तक;
हाय! तड़पती क्यों ये दो आँखें ही बन पाँखें न गयीं?
दिन बीता मित्रों के सँग, पर बीत न पाती लंबी रात
अंतहीन पथ-सी, स्मृति में आती हैं वे मोहक घड़ियाँ,
वह पवित्र उल्लास, उच्च हँसियाँ खिलखिल, वह मीठी बात,
चढ़ी हुई भ्रू, मर्माहत मुख की वे आँसू की लड़ियाँ।
चलचित्रों-सी देख रहा मैं खिड़की के मृदु किरण-बुने
नीले पट पर, खिली कमल-कलिका-सी बाला एक विहँस
मुझे बुलाती, पास पहुँचता जब मैं कुछ भी बिना सुने
दूर भाग जाती खेतों में, त्रस्त, न ले बाँहों में कस।
देह अभागिन! मन के सँग क्यों उड़कर तू पायी न पहुँच
प्रिय तक, जो मुख-चुंबन से झुक रही भूमि की ओर सकुच!
1941