seepi rachit ret
स्वप्न और यथार्थ
तुमसे पाकर भीख स्नेह की, ओ अंतेवासी मेरे!
मैंने अपना भवन बनाया नंदनवन के पास कहीं,
जहाँ मुझे दिन-रात स्वर्ग की परियाँ रहती थीं घेरें,
कभी भूलकर भी आता था इस कटु जग का ध्यान नहीं।
किंतु सत्य जागा जीवन में अपनी पूर्ण प्रखरता ले
बालारुण-सा, एक-एक कर तारों-से सपने मन के
झड़ने लगे, व्योम तरु की डालों से पीत रंगवाले
जैसे कृश पतझड़ के पत्ते, पूर्व वसंत-आगमन के।
उस मधु-गुंजित राज-सभा का आज चिह्न भी शेष नहीं,
मेरे लघु कुटीर में मेरा स्नेहभरा दीपक जलता।
इस-जीवन में उस जीवन की छाया का लवलेश नहीं,
वह तो सपना था जिससे मैं अपने को आया छलता।
हुए पराये दूर सदा को, अपने-अपने ही निकले,
छि: मेरे मन के सपने! तुम सचमुच सपने ही निकले!
1941