seepi rachit ret

साधारण बातें

मैं घंटों सोचा करता हूँ, कैसे मुग्ध बना दूँगा
फिर मिलने पर, तुमको इन-इन मुग्धकारिणी बातों से,
कैसी छिपी प्रशंसाओं से हृदय तुम्हारा हर लूँगा
चुपके से, होता पीछे संतोष न पर उन घातों से।

बन जाता मैं स्वयं चकित, नीरव, जिनको सुनकर, इतनी
मधुर तुम्हारी बातें लगतीं, निष्प्रभ से हो मेरे स्वर
निकल न पाते जिनके सम्मुख, पर तुम उत्कंठित कितनी
रहती उनके हित ही, उनको कह दार्शनिक वचन गुरुतर।

इन बातों में गहराई क्‍या! जैसे दो स्कूली छात्र
बात करें आपस में पुस्तक पर, छोटी घटनाओं पर,
तो भी मन के तार बजाती इनकी पुनः कल्पना मात्र
विरह-प्रहर में, साधारण भी आज असाधारण क्योंकर?

वह न महाकवियों के प्रणय-व्यथा के गीतों में बहता,
युगल प्रेमियों को साधारण बातों में जो रस रहता।

1941