shabdon se pare
दीपक के बुझने का पल है
ज्योति-शिखा अब धूम रही है
स्वप्नाविल-सी झूम रही है
मृत्यु चतुर्दिक् घूम रही है
तन चंचल है, मन विह्वल है
भीड़ न अब पीनेवालों की
आती नहीं खनक प्यालों की
सूख चुकी मदिरा गालों की
उजड़ गया वह रंगमहल है
लौट चुके घर वे दीवाने
आये थे जो स्नेह चढ़ाने
कौन जलन मन की पहचाने!
किसके हित आँखों में जल है!
रात चाँद की, दिन सूरज का
मोल न दीपक की सज-धज का
यह तो एक खिलौना रज का
मात्र स्नेह जिसका संबल है
नभ का जो दीपक बुझ जाता
अगली साँझ पुन: उग आता
पर भू पर फिर दीख न पाता
होता जो दृग से ओझल है
दीपक के बुझने का पल है
1968