shabdon se pare

न कोई पेड़-पौधा है, न कोई छाँह दिखती है
जहाँ तक आ गया, आगे न उसके राह दिखती है
न हँसते ओठ दिखते हैं, न फैली बाँह दिखती है
जिधर भी देखता हूँ, चीख और कराह दिखती है
उदासी है, अँधेरा है
उलूकों का बसेरा है
इन्हींके बीच क्‍या अब
प्राण का आवास मेरा है!
नगर सुनसान यह कैसा? यहाँ पर कौन रहते हैं
कि जो आठों पहर मुँह को सिये बन मौन रहते हैं?

कहीं पर ढेर है टूटे घटों का, भग्न प्यालों का
कहीं अंबार फूटी चूड़ियों, चूनर, दुशालों का
पहाड़ों से इकट्ठे हो रहे तलवार, भालों का
कहीं है ठट्ट पट-आभूषणों, पकवान्न,थालों का
सभी सामान दिखते हैं
भवन-सोपान दिखते हैं
न जीवन का कहीं, पर, चिह्न
सब निष्प्राण दिखते हैं
न क्रेता है, न विक्रेता, न बोली बोलनेवाला
नहीं कोई कहीं से आ रहा पट खोलनेवाला

यहाँ पर रूप और अरूप दोनों एक होते हैं
यहाँ की धूल में प्रतिपल हजारों फूल सोते हैं
यहीं तक के लिये सिर पर सहस्रों शाप ढोते हैं
जगत को जीतनेवाले यहाँ सर्वस्व खोते हैं
न कोई मूर्ख या ज्ञानी,
न विनयी है न अभिमानी
नहीं निर्धन, धनिक कोई
सभी सम, आग या पानी
यहाँ जो भी चला आता, पसारे हाथ आता है
न कुछ भी साथ ले जाता, न कुछ भी साथ लाता है

अरे, वह कौन आयी अप्रतिम सौंदर्य-श्रीवाली !
जवानी फूँककर जिसकी, चिता ने राख कर डाली!
मुकुल-से दुधमुँहों को तोड़ता, कैसा निठुर माली!
तरुण वह कौन आया ज्यों पवन में झूमती डाली!
सतत सौ काफले आते
युवा, शिशु, वृद्ध मदमाते
यहाँ पर देखते-ही-देखते
सब राख हो जाते
झड़े जो फूल फलकर, बात उनकी तो वृथा ही है
यहाँ खिलते सुमन को तोड़ लेने की प्रथा ही है

न उसका आदि दिखता है, न अंतिम छोर दिखता है
निरंतर आ रहा जो काफला इस ओर दिखता है
गले में बाँध कोई खींचता-सा डोर दिखता है
सभी के शीश पर लिपटा कफन का मौर दिखता है
सतत शहनाइयाँ बजतीं
लपट की भाँवरें सजतीं
न फिर भी नव वधू अपने
भवन की देहली तजती
करोड़ों को सुला निज सेज पर भी चिर-कुमारी है
सदा ही द्वार पर प्रणयार्थियों की भीड़ भारी है

यहाँ के एक कण में अनगिनत ब्रह्मांड खोये हैं
यहाँ के एक क्षण में काल के सौ कल्प सोये हैं
यहाँ के एक तृण ने सैकड़ों दिनमान ढोये हैं
यहाँ के एक घन ने सृष्टि के सब रंग धोये हैं।
सहस्रों भावना के स्वर
सहस्रों कामना के वर
प्रतीक्षा और आशायें
सहस्रों सिसकियाँ कातर
दया, ममता, व्यथा, कोई न इसको बाँध पाती हैं
चिता की लपलपाती जीभ सब को चाट जाती है

प्रलय- भ्रू-पात, जिसके हास पर इतिहास अँक जाता
कभी तो उस हठीली नायिका का मुख झलक जाता
कभी तो दृग झँपक जाते, कभी तो हाथ थक जाता
कभी तो तीर कोई चूकता निज लक्ष्य तक आता
जगत को जीतने वाले
यहाँ मुँह पर दिये ताले
नहीं साहस किसी में,
पल भृकुटि-निर्देश यह, टाले
सभी को जो लुभा लेती, मधुर वह तान कैसी है!
सभी जिस पर रहे मर, वह मधुर मुस्कान कैसी है!

सभी तो आ रहे इस ओर ही चारों किनारों से
कहीं भी हों, धरा पर, सिंधु में, नभ के कगारों से
उतर सिंहासनों से, या निकलकर लौह-द्वारों से
जगे हों, नींद में हो, जय-मुदित हों, त्रस्त हारों से
सदा मेला लगा रहता
अहर्निश रतजगा रहता
सतत मणि-यूप नव बलि की
फुहारों से रँगा रहता
चढ़ाते आज औरों को, वही कल आप चढ़ते हैं
सभी इस देवता की भेंट, आ चुपचाप, चढ़ते हैं

1966