shabdon se pare

“नाव में छेद हुआ, छेद हुआ, छेद हुआ!
लोग सब चीख उठे “नाव किनारे कर लो!
‘पर कहाँ तीर अभी ?’ नाव भरी घुटनों तक
डाँड़ को छोड़ सभी हाथ उलीचन धर लो

‘एक ही ओर न झपटो कि नाव डगमग है
साँप है? भय न करो, सिंधु अधिक भीषण है
चीखता कौन? अबुध वत्स? कुमारी बाला?
रात मधु की न कटी, बंधु! इसीका व्रण है?

‘कौन माँ स्कंध लिये वत्स, खड़ी पंजों पर
सिंधु में डूब सकें युग्म, गहनता इतनी
वृद्ध को चार दिनों बाद कहीं मरना था
पुत्र का सोच! मिटीं नित्य लहरियाँ कितनी

‘एक भी रात न वैधव्य, वधू क्‍यों बिलखी?
भ्रातृवर! प्रेम यही साथ मिटो भ्राता के
मित्रता और अधिक मित्र! निभाओगे क्‍या?
शांत सब हों कि यही लेख थे विधाता के

“नाव अब बच न सकेगी प्रयत्न निष्फल है
मृत्यु अनिवार्य, मरो’, कौन वहाँ कहता है!
पाँव काँपें न रुके हाथ कभी इस रण में
मृत्यु के पूर्व मरण वीर नहीं सहता है

‘झूमते, डाँड़ चलाते, समोद गाते ही
मृत्यु की गोद, भरे हाथ, चले जायेंगे
ज्योति का बीज अँधेरा न निगल पायेगा
सूर्य डूबा कि नखत लाख खिलखिलायेंगे’,

1967