shabdon se pare

निज से कुछ और बड़ा होना है
अंबर के पार खड़ा होना है

चाँद और तारों को ढलने दे
जलता हो सूरज तो जलने दे
चादर उतार ले दिशाओं की
धरती को करवटें बदलने दे

मिट्टी का बोझ नहीं ढोना है

भय क्या, जो सृष्टि झुकी जाती है।
भय क्‍या, जो दृष्टि रुकी जाती है!
जीवन का उत्स नया फूटेगा
उल्का की वृष्टि चुकी जाती है

साँसों का सूत्र नहीं खोना है

रंगों का जाल तना दिखता है
नीलापन और घना दिखता है
सोने की धूल नयी चरणों में
सपना ज्यों सत्य बना दिखता है

भव का नव बीज यहीं बोना है
निज से कुछ और बड़ा होना है
अंबर के पार खड़ा होना है

1971