shabdon se pare
फूल रे! झड़ने के दिन आये
खिले बहुत दिन अब धरती से अड़ने के दिन आये
नव छवि की अरुणाभा देखी
इठलाती-सी द्वाभा देखी
छवियाँ कितनी, क्या-क्या देखीं!
अब तितली को देख, सिहर, झुक पड़ने के दिन आये
क्यों न सजे अलकों में बढ़कर!
सार्थक बने सुरों पर चढ़कर!
खिलते रहे जिन्हें गढ़-गढ़कर
उन मृदु सपनों के भी आज उजड़ने के दिन आये
जग में कलि-कुसुमों के मेले
पर तुम-से तुम एक, अकेले
माना सब मन-ही-मन झेले
अब भीगी पलकों के किंतु उमड़ने के दिन आये
फूल रे! झड़ने के दिन आये
1961