shabdon se pare

ओ मेरे मन! तू इतना चिर-सहज क्‍यों है?

स्नेह की तनिक आँच से पिघल जाता है
जैसा भी साँचा हो, उसमें ढल जाता है
कोई भी अनायास तुझको छल जाता है

ओ मेरे मन! तू इतना बेगरज क्‍यों है?

बार-बार एक-सी ही ठोकर खा गिरता तू
बार-बार एक-से ही चक्कर में फिरता तू
बार-बार डूब उसी धारा में तिरता तू

ओ मेरे मन! तू इतना नासमझ क्‍यों है?

जब-जब मैं बढ़ा, तूने वापस पुकार लिया
मेरा होकर भी सदा मुझ पर ही वार किया
छल था वह, मैंने सदैव जिसे प्यार किया!

ओ मेरे मन! तू इतना चिर-सलज क्‍यों है?
ओ मेरे मन! तू इतना चिर-सहज क्‍यों है?

1969