shabdon se pare

मैंने जो लिखा है
बुझते हुए दीपक की शिखा है
क्षण भर अस्तित्व को प्रकाश दिया
अंधकार थोड़ा-सा तराश दिया
मृत्यु-शय्या पर क्षीण हास दिया

फिर वही अँधेरा अनदिखा है

चारों ओर शलभों का मेला है
दीप यों सभी के साथ खेला है
फिर भी अपने में चिर-अकेला है

जाने किस सहारे पर टिका है

शब्दों का कोई यहाँ अर्थ नहीं
तम से लड़ने में ये समर्थ नहीं
फिर भी यह जलना था व्यर्थ नहीं

माना सब लिखा अनलिखा है
बुझते हुए दीपक की शिखा है

1980