shabdon se pare

मैंने यह साँप क्‍यों पकड़ा है
कि जिसने उलटकर मुझको ही

सिर से पाँवों तक जकड़ा है!

नस-नस में विष की-सी सुई है
हड्डियाँ चूर-चूर हुई हैं
अंतर में कितनी भी ज्वाला हो,

बाहर तो हँसना ही पड़ा है

मैं फण पकड़े काँप रहा हूँ
भीड़ से घिरा हाँफ रहा हूँ
नीले पड़े ओंठ, नेत्र पथराये,

पीड़ा से अंग-अंग अकड़ा है

साँप मुड़ सलीब भी बन गया
मस्तक पर छत्र भले तन गया
करते हों लोग खड़े जयजयकार,

क्या, यदि सिर नभ से अड़ा है!
मैंने यह साँप क्‍यों पकड़ा है!
कि जिसने उलटकर मुझको ही
सिर से पाँवों तक जकड़ा है!

1960