shabdon se pare

यह कैसा वर है!
जीवन में शेष, नहीं कुछ, स्वर ही स्वर है

पक्षी यदि होता मैं, नभ में स्वर बो देता
धरती का ओर-छोर सुरों से भिगो देता
बहती बयार जिधर की भी, उधर हो लेता
रात बढ़ी आती देख, धीरज न खो देता

पल-पल यों होता गिरने का नहीं डर है

होता यदि मीन मैं लहर की अवहेला कर
स्वर मोतियों-से रख जाता सिंधु-वेला पर
नीली गहराइयों से खींच, गगन से लाकर
किंतु मुझे भीड़ में दिया है क्यों अकेला कर ?

सारे तरकश में स्वरों का एक शर है

मिट्टी हूँ, चाक पर चढ़ा ले मुझे रौंद ले
जितना जी चाहे, वेदना से प्राण गोद ले
कितना भी आज भावना से कर विनोद ले
पीड़ा यह फूट के रहेगी नयी पौध ले

निष्फल न होता निर्माण का प्रहर है
यह कैसा वर है!
जीवन में शेष नहीं कुछ, स्वर ही स्वर है

1966