shabdon se pare

यों ही हरदम चला करेंगे पैमानों के दौर यहाँ
हाय! एक दिन मैं न रहूँगा, होगा कोई और यहाँ
नये-नये पीने-वाले इस मधुशाला में आयेंगे
मेरे जाने से न रहेगी खाली कोई ठौर यहाँ

जिस दिन जीवन के उपवन में वह अनंत पतझड़ आयेगा
जाने दूर कहाँ अंधड़ आ, मुझे उड़ाकर ले जायेगा!
व्यर्थ बनेंगे भाव हृदय के, गीत प्रेम-मानव की जय के
रूँधे हुए कंठों की अस्फुट तान न कोई सुन पायेगा

.आज समझता हूँ, अपने हैं धरती पर के प्राणी सारे
आसमान के मणि-मंडप में जड़े हुए ये चाँद-सितारे
अंकुर-अंकुर के प्रति मुझमें मोह और ममता-सी जगती
जड़-चेतन, चर-अचर आज सब लगते हैं प्राणों से प्यारे

किंतु एक दिन ऐसा आयेगा अपना कुछ कह न सकूँगा
औरों की तो बात भला क्या! स्वयं यहाँ पर रह न सकूँगा
कर उठती विद्रोह चेतना, मरें अन्य मानव जी-जीकर
मैं अपने तन पर इतना अधिकार किसीका सह न सकूँगा

पर विनम्र हो या अभिमानी, मूर्ख हो कि पंडित हो ज्ञानी
मृत्यु सभी पर अंधे की लाठी न कभी जो खाली जानी
साथ, हाय ! कविते ! क्या दोगी, पत्थर-सी रसना जब होगी !
यह विज्ञान, ज्ञान शास्त्रों का, तनिक नहीं होगा उपयोगी

बालू की दीवार देह यह, गिरते जिसे न लगती देरी
कल जो हँस, फिर, बोल रहा था, आज राख की केवल ढेरी
तुच्छ राख की ढेरी जिसको वायु उड़ा ले जाय कहीं भी
सोच रहा हूँ—‘क्या ऐसी ही दशा एक दिन होगी मेरी !’

शास्त्रों की वाणी रहस्य यह तनिक नहीं सुलझा पायेगी
इतना है, परवश मन को मीठे सपनों से बहलायेगी
मैं तो फूलों की लाली में पीले पत्ते ढूँढ़ रहा हूँ
जिस दिन समझूँगा जीवन को, मृत्यु समझ में आ जायेगी

1941