shabdon se pare

शिशु कहीं चीख रहा एक अँधेरी छत से
लग रही आग, चतुर्दिक्‌ धुआँ-धुआँ जिसमें
लोग असहाय खड़े प्रेत-सदृश मुँह बाये
गाँव ऐसा कि नहीं एक भी कुआँ जिसमें

पात्र जल के न कहीं रज्जु न सीढ़ी, न मचान
शौर्य या बल न किसी में कि लपट से जूझे
और वह वत्स कि चीत्कार किये ही जाता
माँ बिना, कौन भला टीस, तड़प यह बूझे!

जब अटल मृत्यु, उसे क्‍यों न सुझाता कोई
शांत सप्रेम मरे हाथ उठा ईसा-से!
गाँव की नींद न हो नष्ट न सपना टूटे!
रात भर लोग फिरें व्यर्थ न भूखे-प्यासे

चीख फिर! हाय! उसे क्‍या न पता है इसका
सैकड़ों कोस नदी दूर यहाँ से बहती
स्नेह-कारुण्यभरी, मूर्ख जहाँ के वासी
कूदते आप, कुटी देख किसीकी दहती!

गाँव यह शांत, सुधी, सिद्ध, बड़े लोगों का
शीश कट जाय यहाँ टीस नहीं होती है
अश्रु-मौक्तिक न कभी व्यर्थ लुटाता कोई
स्वार्थ से कीर्ति यहाँ बीस नहीं होती है

1962