shabdon se pare

शेष की दीवार से सटकर खड़ा मैं
है ठनी अब काल से अंतिम लड़ाई
अब सरकने को न पीछे स्थान तिल भर
है, मरण या जीत, दोनों में भलाई

मर गया तो जग कहेगा, ‘वीर था यह
मौत को बढ़कर सदा ललकारता था
बैठ विषधर के फणों पर तान लेता
शेष पल तक भी न बाजी हारता था

‘शौर्य की जिसके, प्रशंसा शत्रु करते
बाँकुगा ऐसा हठी, बलवान था यह
बैरियों को छोड़ता बरबस क्षमा दे
नीति, लोकाचार से अनजान था यह

‘आत्मवत्‌ निर्लिप्त सब को जानता था
चाहता था सर्प को निर्विष बनाना
स्वयं पर करता प्रयोग रहा मरण के
मर्त्य को अमरत्व का देने ठिकाना

‘मित्र थे इसके छली प्रच्छन्‍नन जिनके
क्रूर पृष्ठाघात से विचलित हुआ था
बंधु-स्वजनों ने इसे मिलकर गिराया
सतत करके कुसुम से दंशित हुआ था

‘यह सरल-मन था, सदा पर-दुख-दुखी था
दोष इसका था, त्वरित विश्वास करना
हर बुराई में भलाई देखता था
चाहता था शूल से मधुमास करना

‘कौन पाता जीत इसको सामने से,
द्वेष, मत्सर, सुजनता की ढाल लेकर
पीठ पीछे से न यदि छिप वार करते
हाथ में छल-कपट की करवाल लेकर!’

यह कहेगा विश्व मेरी हार सुन कर,
किंतु यदि जीता, कहेंगे विज्ञ जन भी
“जीतती निश्चय बुराई पर भलाई,
बड़ा तम से सत्य का लघु ज्योति-कण भी

1967