shabdon se pare

कैसे पार उड़ूँ जीवन के?
तन के, मन के, अपनेपन के?

कैसे लघुता के स्वर मेटूँ?
उस विराट से भुज भर भेंटूँ?
घन पर तड़ित बिछाकर लेटूँ?

फूल बटोरूँ नंदनवन के?

डूबूँ निज में, जहाँ अमृत कण?
रज है रजत, अकिंचन किंचन?
सृष्टि अमित बन मिटती क्षण-क्षण

जहाँ इंगितों पर चेतन के?

मैं जग को अन्तर्हित कर लूँ?
निजको निखिल भुवन में भर दूँ?
प्रश्न स्वयं, मैं ही उत्तर हूँ

अपने अकथ, अलौकिक क्षण के

कैसे पार उड़ूँ जीवन के?
तन के, मन के, अपनेपन के?