shabdon se pare

घुटती साँस, छूटता साहस, तार-तार हैं तन के
आ पहुँचा मैं किस भयावने मरुथल में जीवन के!

कोई मनुज न विहग न तरु है, दूर-दूर तक फैला
मुर्दे की आँखों-सा मरु है, शीत और मटमैला

मंत्रित पवन, रेत के कण उड़ रहे प्रेत-से तनके

किन जन्मों के पापों की स्मृति रुला रही प्राणों को
किन बीते संतापों की स्मृति घुला रही प्राणों को

खिंचा जा रहा हूँ मैं प्रतिफल मंत्रित बलिपशु बन के

वहाँ सांध्य नभ की घाटी में दूर एक कृश छाया
मिला रही देखो मिट्टी में, रूप-रंग की काया

खींच क्षितिज से उसे बाज-सी, भीतर शून्य भवन के
घुटती साँस, छूटता साहस, तार-तार हैं तन के
आ पहुँचा मैं किस भयावने मरुथल में जीवन के!

1943