tilak kare raghuveer

कौन अपना है, कौन पराया!
मैंने तो पथ पर सबको ही बढ़कर गले लगाया

कुछ पग छूने को ललचाये
कुछ आये बाँहे फैलाये
कुछ थे मन में गाँस छिपाये

सब का साथ निभाया

खा-खाकर झंझा के झोंके
यद्यपि रंग उड़े गालों के
काल-वधिक ने पथ भी रोके

गति को रोक न पाया

यों तो रहे कष्ट, दुख घेरे
कम न ग्रहों के भी थे फेरे
पर थी सदा शीश पर मेरे

एक स्नेहमय छाया

कौन अपना है, कौन पराया!
मैंने तो पथ पर सबको ही बढ़कर गले लगाया