tilak kare raghuveer

चलो धीरे-से इस बस्ती में
जग न पड़ें फिर सोनेवाले अपनी पर्णकुटी में

यद्यपि वे सपनों में खोये
जग न सकेंगे, ऐसे सोये
पर होंगे कुछ राग सँजोये

अब भी अपने जी में

सुनते ही पाँवों की आहट
उठ बैठें न कहीं ले करवट
हैं अब भी अधखुले द्वार-पट

दीप जल रहे धीमे

किन्तु, नींद क्यों उनकी खोते!
वे अब यहाँ चैन से सोते
क्यों मिलने को व्याकुल होते?

जाना तुम्हें उन्हीं में!

चलो धीरे-से इस बस्ती में
जग न पड़ें फिर सोनेवाले अपनी पर्णकुटी में