tilak kare raghuveer

नाथ! क्या माँगूँ चाँदी-सोना!
गंगा के तट पर आकर भी, मलिन वसन ही धोना!

कर अहेतुकी कृपा दास पर
तुमने दिया विनय का अवसर
सम्मुख कल्पवृक्ष भी पाकर

रोऊँ जग का रोना!

श्रद्धा और भक्ति बस माँगूँ
मोहमयी निद्रा से जागूँ
यह कर्मों का गट्ठर त्यागूँ

पड़े न आगे ढोना

प्रीति, प्रतीति, बढ़े नित मन की
जानूँ, भ्रम है भीति मरण की
बुझ न सकेगी लौ चेतन की

हो, जो भी है होना

नाथ! क्या माँगूँ चाँदी-सोना!
गंगा के तट पर आकर भी, मलिन वसन ही धोना!