usar ka phool

राजस्थान की एक प्रेम-कथा

संध्या धूसर-मुख बिदा हुई
नीली घाटी के पार
पश्चिम की स्वर्णिम छुईमुई
मुरझायी छवि के भार

जन एक बढ़ा पुर की दिशि में
जो था नीरव, सुनसान
कर आया पार दिवस-निशि में
वह लंबा रेगिस्तान

आकुल, विह्वल, शंकित, उन्मन
द्रुत-पद, मिलनातुर,  भीत
गाता-सा पथ पर मुड़ क्षण-क्षण
प्राचीन विरह का गीत

नभ से भू को तम-सरि उमड़ी
झंझा – झकोर दुर्दात
भूरी चादर-सी बिछी पड़ी
थी मरुस्थली एकांत

देखा कुटीर का दीप बुझा
आहट से खुले कपाट
“प्रिय! निश्चित अवसर बीत चुका
मैं कब से तकती बाट!

“मैं कब से तकती बाट खड़ी !’
ध्वनि आयी कंपित, भीत
‘देखो तारों को, एक घड़ी
रजनी हो चुकी व्यतीत

“किरणों के सागर में मरुथल
जब प्रात करेगा स्नान
ऊषा नीलम-गिरि पर चंचल
अंचल-पट देगी तान

“कर पार चुकेंगे हम दोनों
धर बंजारों का भेस
यह राज्य, नृपति चारों कोनों
फिर ढूढ़ें देश-विदेश

“मैं महल-अटारी क्‍या जानूँ
मैं कृषक-बालिका दीन
राजा मेरा जिसको मानूँ
हूँ इच्छा में स्वाधीन!

मृदु, प्यासे ओठ झुके नीचे
देखा प्रणयी ने मौन
थी लाल खड़ी वह, दृग मींचे
बेसुध-सी, कहती ‘कौन’

वह चीख उठी, सहसा पग के
नीचे आया ज्यों साँप
काँपी प्रिय के उर से लगके
सुनकर घोड़ों की टाप

वह बोला वे सब जान चुके
द्रुत भाग चलो’ पर हाय!
वह बढ़ती कैसे! पाँव रुके–
‘छोड़ूँ माँ को असहाय!!

दस उल्काएँ चमकीं गृह में
जैसे दस काले नाग
ले रक्तिम जीभ बढ़े, सहमे
पाये न युगल-मृग भाग

प्रिय के तन के टुकड़े कटकर
पल में भू पर थे ढेर
वह चीख उठी, काँपी थर-थर
रोयी कातर मुख फेर

बुझ गयी नृपति की प्रेम-व्यथा
पा महलों का श्रृंगार
पर अंतःपुर की मर्म-कथा
थी बस आँसू की धार।

1941