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पहन नील घन-वसन विरहिनी रजनीबाला
नभ-गवाक्ष से झुकी निरखती थी पथ काला
चितवन चकित चतुर्दिक हिम-तारों की झलकें
फैली थीं स्मृति-सी लहरों में कजल अलकें

स्वप्निल क्षण-क्षण टूट रहे जो नखत नहीं थे
वाष्पाकुल अंचल से झरते अश्रु वही थे
जिसका आदि न अंत, शून्य की लहर चीरता
एक पोत बढ़ता था क्षण-क्षण ज्यों अधीरता

गहन तिमिर अध-ऊर्ध्व मृत्यु-सा अटल, अपरिमित
चेतन की अनुभूति-सदृश था पवन प्रवाहित
भग्न हृदय-सा जलनिधि भर निःश्वास रहा था
विकल रो पड़ी उषा-‘हाय! अब मुकुल कहाँ था!

“कहाँ सुनहले दिवस, हँसी, शैशव-क्रीड़ायें!
प्यारभरी बातें, भय, प्रीति, पुलक, पीड़ायें!
जीवन की तम-निशा देखकर जिसे बिता दी
कहाँ मूर्ति वह, निर्मम प्रतिकृति स्वीय पिता की!

‘हंस उड़ गया सहसा दिशि अनजानी लेकर
खड़ी रही जननी नयनों में पानी लेकर
धिक्‌ मातृत्व, न जो सुत की रक्षा में सक्षम
घिक्‌ जीवन, जीवित सह इतने दुःखों के क्रम

‘घिक्‌ संसार असार शून्य तत्वों से सर्जित
मेघों का पुर, सपने के सिंहों-सा गर्जित
मृत्यु धन्य, सब की तू ही ध्रुव आश्रय-दात्री
सुखमय, शांतिभरी, इस जीवन-शिशु की धात्री

दृग से ओझल देख जिसे झट दौड़ विकल-सी
भर लेती बाँहें फैला तू शीतल जल-सी
आह! निरर्थक ही जब यह जीवन, केवल श्रम
फिर क्यों जन्म-मरण-सुख-दुख-उत्थान-पतन-क्रम?

“क्यों ममता का जाल बिछा मन के चारों दिशि?
ग्रह पिंडों का नृत्य, काल का चक्र अहर्निशि
मिलन-विरह के हास-अश्रु, मर्मांतक पीड़ा
फिर क्योंो शत वेदनाभरी यह कातर क्रीड़ा?

‘कोई इस अज्ञात, अमित, तम के भी ऊपर?
किसका यह आलोक, चेतना का कण भू पर?
तृण, तरु, पल्ल्व, कीट, विहग, मनुजाकृतियों में
कुछ तो? किसका नृत्य देखती अपलक जो मैं?

“सत्य कहीं तो? जड़-चेतन, तम या प्रकाश चिर?
चला गया जो कभी मिलन होगा उससे फिर?
वह न भूमि, आकाश, पवन, पावक या पानी
वह चेतन-कण, भिन्नव सबोंसे, शाश्वत प्राणी

‘नाम-लिंग-पंचत्व-मुक्त, निर्गुण, अविनाशी
पहचानेगा जननी को वह शून्य-निवासी ?
आह, पुत्र! क्योंो ऐसे दुखिया गृह में जनमें?
जीवन कौ सब साध रह गयी मन की मन में

‘थे केवल आधार तुम्हीं मुझ एकाकिन के
पाप खा गये! वत्स, तुम्हें भी मुझ पापिन के
सँग उसके जाने न दिया क्यों मुझे, विधाता?
बिना पुत्र के जीवित क्याय रह सकती माता!

“फिर भी मैं जीवित हूँ, आह! कुलिश-सी छाती
खंड-खंड हो क्यों न भूमि के बीच समाती!!
तड़प उठी ज्यों तड़ित, अश्रु सीपी में बरसे-
स्वाति कणों-से या तारे टूटे अंबर से

महाशून्य में पति मनुजता का हो जैसे
बढ़ता हीं जा रहा अनादि, अनंत समय से
तिमिर ऊर्ध्व-अध, एक अटल ज्यों सत्य चिरंतन
नखत रजत-चेतना-चिह्न बन मिटते क्षण-क्षण

लहरों का नर्तन, परिवर्तन, सृष्टि प्रलय-क्रम
दिशि-दिशि पवन, व्योम सिर पर ज्यों मूर्त-मोह-भ्रम
पहुँच गयी चेतना शून्य के महा-निलय में
अनस्तित्व में, चिदाकाश अथवा अक्षय में

जहाँ न सुख, दुख, राग द्वेष, स्मृति, भय, चिंतायें
रवि, शशि, नखत, न, तम, प्रकाश, संध्या, ऊषायें
एक अमित विस्तार, शून्य अव्यक्त, अकल्पित
अस्ति-नास्ति से भिन्ना, स्वयं बनता, मिटता नित

सृष्टि-जागरण-पूर्व नीलिमा के झलमल-सा
सहसा उसी शून्य से निकला स्वर्ण कमल-सा
मधुकर-सा गुंजरित एक शिशु जिसमें पैठा
मृदु मुस्कानभरा आँखें मलता उठ बैठा

पाटल-अरुण कपोल, अश्रु-हिम-चंदन-चर्चित
‘माँ, माँ,’ कहता फैलाये बाँहें माँ के हित
स्वेच्छा से जननी से जो पल-भर न बिछुड़ता
पास आ रहा था वह मानो उड़ता-उड़ता

स्वप्न-जड़ित-सी पलक-पुतलियाँ काँप रही थीं
दीप-शिखा-सी अंधकार को चाँप रही थीं
‘पुत्र! पुत्र! दुखिया माँ की आँखों के तारे
प्राण-प्राण के जी के जी, हो बैठे न्यारे!

“वत्स! कहाँ तुम? कभी तुम्हें घर की सुधि आती?
दिखती इस निर्लज्जा की पत्थर-सी छाती?
छूते ही फिर पड़े न सारी आयु कलपना
वहीं, वहीं, रुक रहो, न सपना हो सुख अपना

मुरझाया-सा कमल-कोष हो रिक्त पड़ा था
दीख पड़ा राजीव कहीं जो पास खड़ा था
युग नयनों से बहती थी आँसू की धारा
‘लो, अपराधी खड़ा सामने, देवि! तुम्हारा’

देश-देश ढूँढ़ती फिरी जिसको दीवानी
सत्य समझ जो कहीं किसीसे सुनी कहानी
वह तो सदा तुम्हारा था छुटकर भी तुम से
कभी केतकी लता बिछुड़ती कल्पद्रुम से!

मेरी मधु-चंद्रिके, कहाँ पर चंद्र-खिलौना?
वह जिसको पा हरित-भरित था उर का कोना
सोचा भी न तनिक, किस पर यों रोष किया था
उस अबोंध शिशुता ने भी क्याि दोष किया था!

चलते क्षण स्मिति भी न चूम पाया मैं उसकी
कहाँ? जुड़ा लूँ हृदय देख काया मैं उसकी?
अस्फुट कंठों से न कढ़ी उत्तर में वाणी
जाग पड़ा पीड़ाकुल प्रिया-हदय अभिमानी

एक-एक कर लुप्त हुए तारे ज्यों प्रिय-जन
नील कमल-सा खुला गगन का स्वर्णिम आँगन
अँगड़ाई भर लहरें हँस-हँस जाग रही थीं
चूम चपल किरणें मौक्तिक-मय माँग रही थीं

मिलने को प्रियतम समुद्र से बाहें चीरें
उतर रहीं थी उषा व्योम से धीरे-धीरे
नील नलिन से नयन स्नेह-कौतूहल-स्फारित
स्वर्ण-वसन-तनु, भाल अरुण बिंदी, ग्रीवा सित

नभ-चुंबी जलपोत, धूममय बादलवाले
तैर रहे थे जल पर मानो पर्वत काले
चित्रित प्राचीरों से भवन दृष्टि-पथ रोके
भेद गयी थीं हृदय गगन का जिनकी नोकें

खींच थकित नि:स्वास, स्नेह-डगमग पग धरती
उतरी तट पर विकल विरहिनी डरती-डरती
श्वेत बदन, युग नयन प्रात-दीपक से सूने
जौहर का श्रृंगार किया ज्यों नयी बहू ने

तर्क-जाल-सी उलझी थी सम्मुख पथ-रेखा
हाट, वीधि, पुर जैसे कोई सपना देखा
उत्तर पथ, पौराधिकारियों के थे जी में-
रक्त भवन, ज्यों रक्त कमल-दल हों सरसी में

छिपता छाया-सा प्रभात आता था पीछे
अधरों में नि:स्वास, अश्रु पलकों में खींचे
‘घर से इतनी दूर अकेली जो आ पहुँची
अंतःपुर की प्रिया न बाहर आते सकुची

‘लेगी वह अब भीख उसीसे जिसके कारण
छुटा प्राणपति, लुटा मधुर उसका नंदनवन !’
मान सका मन किंतु! मानिनी लाख न माने
गोपन रक्खा निज को निजता की पीड़ा ने

श्याम निशा की मौन अश्रु-धारायें अविरल
देखीं, किंतु न ढाढ़स देने का पाया बल
घुट-घुटकर रह गया लिये निज मर्म-व्यथा को
एक बार, बस एक बार भी कह न सका जों–

“अपराधी यह खड़ा आज जगती के आगे
पर क्याा वह निर्दोष सती सीता जो त्यागे!
अबला पर यह रोष! उसे ममता न सताती
चुप बैठा है निठुर किये पत्थर-सी छाती

“भुला मान, संकोच, लाँघ आयी गृह-रेखा
जाने इसने भी ऐसे पति में क्या देखा!
सहसा संमुख दिखी अटपटी गति से जाती
उषा हिमाहत नलिनी-सी आँसू बरसाती

फूट रही थी नयनों से कातरता मन की
‘आज मिलेगी छवि दर्शन को जीवनधन की’
बार-बार अंतर स्मृतियों से आता भर-भर
काँप रही थी क्षीण देह-लतिका रह-रहकर

“क्या न पगों पर पड़ी प्रिया को क्षमा करेंगे?
कहाँ शरण, यदि मोड़ वही अपना मुँह लेंगे!
अपने हाथों श्याम अलक में जिसे दिया भर
उस सेंदुर की लाज भूल सकता कोई नर!

‘वे तो करुणामय उदार कोमल-चित हैं अति
निष्ठुरता धारण कर लेंगे मेरे ही प्रति!
प्रखर प्रखर-तर धूप चढ़ी आती थी संमुख
कुम्हलाया जाता था क्षण-क्षण कांत कमल-मुख

पाटल पर हिम-कण से श्रम-सीकर छवि छाये
धरे किरण की डोर नखत ज्यों नीचे आये
अथवा छवि की छाया से ही हत-प्रभ होकर
रवि ने भेंट किया था मौक्तिक-हार पिरोकर

छूट रहा था मानो सुषमा का फव्वारा
दीप-शिखा पर ठहर गया हो जैसे पारा
कंपहीन चेतना चिंतना के प्रहरों में
बड़ती ज्यों इति-हीन शून्य तम की लहरों में

चरण बढ़े ही जाते थे उर की धड़कन-से
आकुलता से, प्रणय-प्रतीक्षा के मृदु क्षण-से
रवि अस्ताचल ढले, कुंज में लौटी छाया
धूलि-मलिन, घन-पुलिन लाँघती-सी कृश-काया

शीत पवन झोंकों में दुर्बल दीप-शिखा-सी
कंपित-देह, स्नेह से वंचित, भूखी-प्यासी
रोती गमनोत्सुक किरणों से लिपट-लिपटकर
संध्या-सी चलकर आयी सागर के तट पर

बाल कलाधर कुमुद विकसता धरि-र्धारे
लहरें विकल बढ़ी जाती थीं बाँहें चीरे
एक दूसरे से लेती थीं होड़ कि पहले
कौन चूम लेगी सिकता के अधर सुनहले

भरता था निःश्वास जलधि ऊर्वसी-विरह में
कोमलता नर्तन-रत थी किंवा छवि-गृह में
किन अज्ञात रहस्यभरे तीरों को छूती
अनागता अगणित निशि-वधुओं की ज्यों दूती?

मात्र कल्पना-निर्मित तनु, भू की आशायें
चपल हुई-सी नभ-परिणय की अभिलाषायें
या अनादि के महाकाव्य की कड़ियाँ टूटी
युग-युग से फिरतीं विरहाकुल प्रिय से छूटी

बढ़ने लगा प्रकाश, स्वर्ण-चंद्रातप छाया
कुंद-इंदु ने बूँद-बूँद मकरंद लुटाया
कोटि करों से मिले कोटि वधुओं से आकर
कलियों से कुसुमाकर-से, स्मित-अधर सुधाकर

सम्मुख पारावार उमड़ता प्रश्न चिरंतन
उठते थे आवर्त विचार-जलधि में क्षण-क्षण
‘प्रथम किरण कब उतरी रक्तालक अंबर में?
कब सहसा थी उठी प्रथम लहरी सागर में?

‘तारों से श्रृंगार किये कब प्रथम निशा थी
आयी संसृति-तीर मलिन जब हुई दिशा थी?
कब पहला निःस्वास विश्व-शिशु का मलयानिल
काँप उठा कोमल कलिका-अधरों पर झिलमिल?

‘प्रथम चेतना-सी कब फूटी ज्योति धरा पर?
प्रथम गिरा से गूँज उठे कब मेघ घुमड़कर
चली शून्य से प्रथम इंदु की स्वर्ण तरी कब?
रवि ने धरा-वधू के सँग भाँवरी भरी कब?

कब अंतिम किरणें नभ मे छिपने जायेंगी?
कब वह अंतिम लहर विदा लेने आयेगी?
संसृति की अंतिम संध्या अवगुंठन खींचे
चिर-समाधि कब लेगी तम में आँखें मोंचे?

“वृद्ध विश्व यह नक्षत्रों की खाकर ठोकर
महाशून्य में लय होगा कब अंतिम तिथि पर?
कब अंतिम चेतना अचेतन बन कर शव-सी
महाशून्य में खो जायेगी स्वप्न-विभव-सी?

‘खींच शेष निःस्वासें कब काया अंबर की
उड़ जायेगी झाड़ नखत-हित-कणियाँ पर की?!
निशा शेष हो गई तारकों के डग भरती
उदयाचल पर थी बालारुण-ध्वजा फहरती

दूर दिख पड़ीं नव किरणों-सी छवि में लिपटी
स्वर्णालका तरुणियाँ आती सकुची, सिमटी
उषा छोड़ तरु-कुंज चल पड़ी छाया जैसे
नयनों में सहसा राजीव समाया जैसे

वही फुल्ल मुख, वही स्कंध, वे ही लोचन थे
गति आकृति में सभी उसीके-से लक्षण थे
साथ एक सुकुमार, सुभग बाला विधु-वदनी
फूट रही थी जिससे यौवन की निर्झरणी

सुषमा से सौंदर्य, प्रीति से हर्ष जुड़ा था
ज्यों वन-श्री के साथ स्वयं ऋतुराज खड़ा था
शिशु कनिष्टिका धरे मध्य में एक चपल-सा
खेल रहा था सिकता पर लहरों के जल-सा

आनन वही, वहीं स्मिति, चलना, उठना, गिरना
सभी मुकुल की प्रतिकृति थे, छिपना, हँस फिरना
छीन लिया था पति जिसने सिंदूर माँग का
चुरा लिया था ज्यों उसने ही फल सुहाग का

फूट पड़ा कातरता दृग से पानी बनकर
‘यों रह जाये प्रेम अपूर्ण कहानी बनकर
दीप-शिखा, जल का बुद्बुद, विद्युत की रेखा!
एक हृदय को ही पर सब से अस्थिर देखा

‘सैकत का पद-चिह, धूम-विरचित आकृति-सा
सपने-सा, नाटक के वन-हरिणों की गति-सा
किसका? कहाँ? कौन बतलाये? चंचल लहरी
किसके साथ, कहाँ पर, कब, पल-भर को ठहरी?

‘मृग-तृष्णा को देख अभी तक जीती आयी
मान अमृत जीवन का विष नित पीती आयी
वह कल्पित आधार मिटा, जिसकी छाया में
यह शिशु हृदय सदा करती थी बहलाया, मैं

“आशा बिना साँस का कैसे तार जगेगा?
हाय, शेष जीवन कैसे अब पार लगेगा?
‘क्या कह दूँ, “ओ निठुर! अभागिन प्रिया तुम्हारी
आ पहुँची जो यहाँ स्नेह-वंचित दुखियारी

‘ “निज-सेवा-अधिकार न पर को पाने देगी
अब न निमिष भी और तुम्हारे बिना रहेगी” ’
किंतु पुकार रहा था कोई छिप कर मन में
‘यह कंचन का भवन क्षार कर देगी क्षण में!

‘त्यागमयी तू भूल गयी जीवन की दीक्षा
नारी! सँभल प्रेम की तेरे आज परीक्षा
सुखी प्राण को रुला हर्ष में शोक बुलाये
प्रेम यही, इससे तो अच्छा है मर जाये

“जिनके सुख में सुख जीवन का मान लिया है
हीरे-सा यह हृदय जिन्हें कर दान दिया है
पति आत्मा-सहचर, जीवन जीवन के स्वामी
सुखी रहें वे, मैं तो पद-रेखा, अनुगामी

उनके सुख से सुखी, दुखी दुख से हूँ उनके
फूल सँजोती जाऊँगी पथ पर चुन-चुनके
मृत के सँग तो सती हुईं कुलवधुएँ अगणित
जीवित पति-हित आज करूँगी मैं तन अर्पित

आज अधूरा भी न अधूरा जीवन मेरा
पूरा होगा अब उस पार मिलन-प्रण मेरा
नारी! जीवन-वेदी पर तूने तिल-तिलकर
सदा स्वीय बलिदान किया है, नीरव, निःस्वर

‘देती आयी सदा ऋणी नर को युग कर से
तू शीतलता, शांति, स्नेह, सुख के निर्झर से
जननी! तू जन-जन को, करुण-पराजय-पल में
सहज सुला लेती निज ममताकुल अंचल में

“प्रिया, प्राण की प्राण, बंधु, जीवन की साथी
पत्नी रत्नमयी, यत्नों से रक्षित थाती
आत्मा-सहचर, कब तुझको प्रिय ने पहचाना
सीखा जिसके लिये सदा तूने मिट जाना!

‘चिर-बलिदानमयी। चिर-वीतराग. संन्यासी!
देवि-नीलकंठे! कुंठित चरणों की दासी!’
एक ओर थी स्नेहभरी शीतल जलमाला
एक ओर जग की कराल झुलसाती ज्वाला

भोग भावना का प्रतीक जीवन ओझल था
केवल सूनी आत्मा, सूना नभमंडल था।
आशा, हर्ष सकल संवेग-रहित बस धीमे
एक अजान पुकार रहा था क्षितिजतटी में

उमड़ ग्राह-सी भीम लहरियाँ कटि तक आयी
“किधर चली? लौटो, लौटो’, स्वर पड़े सुनाई
मुड़कर देखा विकल प्रभात पुकार रहा था
किंतु लौटने का अवसर अब शेष कहाँ था।

भीख स्नेह की सजल नयन कितनी ही माँगे
कोई लौट सका है जीवन में बढ़ आगे!
जीवन तो बस एक दाँव, हारे या जीते
आये मुट्ठी बाँध, चले युग कर ले रीते