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झिलमिल गोधूली-पट में, खिलखिल हँसती इठलाती
रजनी चंद्रानन से थी, तम का घूँघट सरकाती
जलनिधि उन्मत्त शिखी-सा, लहरों के पंख उठाये
नूपुर पर नाच रहा था, झुक-झुक कर दायें-बायें

इस ओर रक्त-लथपथ रवि, शतदल-सा मुँदा पड़ा था
मूर्च्छिता प्रभा धरती पर, छवि का सुहाग उजड़ा था
विधु-मुखी अचंचल-नयना, तारक-बुद्‌बुद-रसना-सी
नभ-गंगा में प्रतिबिंबित, चंद्रिका नील-वसना-सी

नीली साड़ी में लिपटी, निष्पंद हुई हिम-सरि-सी
थी एक अपरिचित युवती, सोई तट पर अप्सरि-सी
अचपल चित्रित दीपक-सी, जैसे कंचन की प्रतिमा
निष्प्राणा इंदुमती-सी, दिखलाती छवि की महिमा

लहरों के आधी बाहर, झिलमिल थी उसकी काया
जैसे शिंशुप की शाखा, या बाल इंदु की छाया
जनता उमड़ी पड़ती थी, बेसुध, अवाक्‌, शोकातुर
“किस हठी मंदभागी का, यह उजड़ गया अंतःपुर’

काली तम-सी अलकों में, सिंदूर प्रभा-सी फैली
मुख-सुषमा सूर्यमुखी-सी, संध्यागम से मटमैली
स्मिति चित्रित थी अधरों पर, पाटल पर हिम-रेखा-सी
सैकत-तट पर सोयी थी द्वाभा कौ विधु-लेखा-सी

जल से निर्वासित नलिनी, बिजली ज्यों गिरी गगन से
लहरिका एक गति खोकर, थी लिपट रही रज-कण से
मलयानिल के चुंबन से, अलकें मुख पर उड़ आती
अंचल-पट लहरा उठता, चेतनता ज्यों मुड़ आती

था वहीं पार्श्व में तट पर, शव एक अजान पुरुष का
छोड़ेगा साथ न पल भर, यों हाथ बढ़ा था उसका
जन अश्रु-सजल नयनों से, आपस में थे बतलाते
‘हों कहीं न पति-पत्नी ये, जो डूबे साथ नहाते!

दोनों ही किसी अपरिचित, अज्ञात देश के वासी
घर से, कैसे ? क्यों निकले? किस क्षण में सत्यानाशी ?
अथवा दोनों संसृति के, दो भिन्नक तटों पर रहते
मिल गये मरण-सीमा पर, जीवन भर बहते-बहते’

भारी उर ले घर लौटी, जब किरण उदास सहमती
पति का मुख चूम पिकी-सी, बोली कुछ थमती-थमती
जिस दूर देश से पहुँचे, तुम यहाँ एक दिन, प्रियवर!
दो अन्य अभागे यात्री, थे आज वहीं के तट पर

थी एक सुंदरी युवती, प्रेमी था अन्य कि पति था?
दोनों निष्प्राण पड़े थे, अह, कितना क्रूर नियति था।
राजीव विकल सहमा-सा, नभ की दिशि देख रहा था
वह कौन? कौन होंगे वे? यात्री वह कौन? कहाँ था?

“अच्छा मैं भी खो जाऊँ, उस युवती-सी ही जल में
तो मुझे पकड़ने को तुम, कूदोगे जलनिधि-तल में?
मैं मर भी जाऊँ तो क्या ! तुम सुख से सोते रहना
तब मुझे एक-से होंगे, हँसना या रोते रहना’

मुड़ते हीं चौंक किरण ने देखे लोचन जल भरते
‘संवेदन में दुख इतना! मरने से पहले मरते!’
बोला राजीव विकल-सा “मन जाने क्योंम घुटता है?
साथी ज्यों कोई, पथ के दोराहे पर छुटता हैं

‘लहरों पर चलनेवाले, पद-चिह्न छोड़ पाते हैं।!
पल को जल की वंकिमता, कुछ और मोड़ जाते हैं
“ज्यों प्रिये! आज प्राणों में, शास्वत वियोग जगता है
जो भी घर जलता दिखता, अपने घर-सा लगता है

हर दीपक में जलता मैं, हर बादल में रोता हूँ
सागर की लहर-लहर में, जैसे मैं ही सोता हूँ
मैं जिसे छोड़कर आया, उस पार प्रिया लघु वय की
करती होगी न प्रतीक्षा, अब भी इस निठुर-हृदय की!

रख सका न बाँध मुझे क्यों, वह भोला-भाला मुख भी!
सच है विराग बन जाता, जीवन में अतिशय सुख भी
पल भी मन में न विचारा, जायेगी कहाँ अभागी
अंकस्थ अल्प-बय शिशु ले, पत्नी वह पति से त्यागी ‘

सहसा मुड़ सजल किरण-से, बोला राजीव सहमता
जैसे मरु-पथ का यात्री तरु की छाया में थमता
“यदि छोड़ चला जाऊँ मैं, ईर्ष्या-वश, प्राण! तुम्हें भी
इतना ही प्यार रहेगा तुमको मेरी स्मृति से भी?’

बोली रुक किरण सिसकती, “यह प्रश्न विकल करता है
मिट जाये देह भले ही, पर प्रेम कभी मरता है!
मिट सकी तुम्हारी ऊषा! नित नयी विभा धरती है
देखो मेरी आँखों में, बन किरण नृत्य करती है

मेरी आत्मा की आत्मा, शैया की समभागी वह
तन-मन से एक हुई है, सँग-सँग सोई-जागी वह
वह सजला यशोधरा-सी, इतिहास-पृष्ठ पर लेटी
परित्यक्त सती सीता-सी, धरती की दुखिया बेटी

उर्वशी अनंत विरह की, दुख-दग्धा शकुंतला-सी
निष्ठुर नल की दमयंती, वह विधु की भग्न कला-सी
मेरे मन में उसके ही, मन की धड़कन बजती है
तुम तनिक ध्यान से देखो, ऊषा मुझ में सजती है’

युग से विस्मृत वह आनन, फिर संमुख दीख पड़ा था
राजीव विकल सहमा-सा, जैसे निष्प्राण खड़ा था