aayu banee prastavana

आँसू की बूँदों से गढ़ता मैं प्रतिमा सुकुमार तुम्हारी

मन में गाँठ बाँध दी तुमने ऐसी स्नेहभरी स्मृतियों की
अब भटकूँ कितना भी, रेखा मिट न सकेगी इन गतियों की
मेरे क्षणभंगुर क्षण-क्षण को तुमने शाश्वतता दे डाली
एक जन्म में शत जीवन भर चेतनता शत संसृतियों की

प्राणों के इस शीशमहल में अगणित बिंब निखरते आते
मेरी साँसों में युग-युग की आती विकल पुकार तुम्हारी

खिलो कहीं भी तुम कलिका-सी, मुझे सुवास पहुँच जायेगा
कहीं जलाओ दोपक, मुझ तक मधुर प्रकाश पहुँच जायेगा
प्रतिध्वनि मुझमें ही गूँजेगी, गीत किसी मंदिर में गाओ
अर्ध्य किसीको भी दो चाहे, मेरे पास पहुँच जायेगा

किसी अधर पर बजे बाँसुरी, तान सदा मेरी ही होगी
मेरा ही जयघोष करेगी जीवन की हर हार ,तुम्हारी

तुमने क्या देखा था उस दिन जो अपनापन खो बैठी थी!
क्या पाने की प्रत्याशा में हीरे-सा मन खो बैठी थी!
पनघट का पत्थर मैं जिस पर केवल गागर भर टिक पाती
कैसा था बेसुध क्षण जिसमें सारा जीवन खो बैठी थी!

वह उन्माद प्रथम परिचय का, वह छवि कैसे आज भुला दूँ
जब हँसती आँखें देखी थीं  मैंने पहली बार तुम्हारी!

इंद्रधनुष-सी मुस्काती छवि सजल पुतलियों पर चढ़ती है
अंग भरे लावण्य, लुनाई जिनमें से फूटी पड़ती है
पीड़ाकुल पलकें, प्राणों में प्रतिपल तीव्र व्यथा का दंशन
मैं गढ़ता हूँ मूर्ति नहीं, वह मूर्ति स्वयं मुझको गढ़ती है

भावों की आँधी से बनती कुछ की कुछ आनन की रेखा
मेरे आँसू में मिल जाती है आँसू की धार तुम्हारी

आँसू की बूँदों से गढ़ता मैं प्रतिमा सुकुमार तुम्हारी

1965