aayu banee prastavana

अंतर का कोई द्वार कभी तो खड़केगा!
मैं प्राण तुम्हारे पास कभी तो आऊँगा!

माना तुम पलकों कौ चिक डाले पीड़ा के

रंगीन सुनहरे जादूघर में बैठी हो

माना तुम नीरब सुंदरता की प्रतिमा-सी

अपने सपनों की अगुरु-धूम में ऐठी हो

वंदिनी लाज के मृदु अशोकवन की सीता
संयम के कठिन कृपाण तले चिर-भीता-सी
माना तुम वीतराग योगी-सी, जीवन की
उद्‌दाम लहरियों में पल एक न पैठी हो

मैं, प्रिये! कभी तो लौह-यवनिका भेदन कर
बन किरण तुम्हारे अधरों पर मुस्काऊँगा!

जीवन पर तुमने इतने घेरे डाले हैं,
कोई भावों की थाह नहीं पा सकता है
मन के नंदन में पहुँच गया भूले से भी
आगे बढ़ने की राह नहीं पा सकता है

जो दीप अँधेरे की छाती पर तैर रहे
जो फूल गगन के वातायन में अटके हैं

मैं उनकी पावनता अंजलि में भर लूँगा
मैं उनकी हिममयता को छेड़ जगाऊँगा!
अंतर का कोई द्वार कभी तो खड़केगा!
मैं, प्राण! तुम्हारे पास कभी तो आऊँगा!

1965