aayu banee prastavana
टूटी हुई लहर हूँ मैं, मुझको अलकों का साज दो
छूटी हुई किरण हूँ मैं, मुझकों पलकों में आँज लो
जिसे जलाकर छोड़ गयी तुम, पिछली संध्या-वेला
चौराहे का दीपक वह तम से लड़ रहा अकेला
तिल भर स्नेह, तुनुक-सी बाती, जलते रात बितायी
पाहन, झड़ झंझा का झोंका उसने सब कुछ झेला
अब अपनी अंचल-छाया में, यह अनुबंध अकाज, लो
पाया जो पाना था जग में, दिया कि जो देना था
मुझे प्रात तक उऋण सभी के ऋण से हो लेना था
स्नेह लिये आये कितने बाती केवल उकसाने
कितने फूँक बुझानेवाले, सब के सँग खेना था
और तुम्हारी बारी है अब वह अंतिम आवाज़ दो
एक हाथ में मरण, एक में जीवन लिये खड़ा मैं
इस चिन्मयता में पहले से ऊँचा और बड़ा मैं
अब इतिहास लिखो मत मेरा, जल की रेखाओं से
मिटकर स्वयं मिटा जाता हूँ यह सारा पचड़ा मैं
पल भर कहला सकूँ तुम्हारा, बस यह गौरव आज दो
छूटी हुई किरण हूँ मैं, मुझको पलकों में आँज लो
1965