aayu banee prastavana
तुम्हें मैं किस तरह भूलूँ। तुम्हें मैं किस तरह भूलूँ!
न तन को चैन मिलता है, न मन को चैन मिलता है
न कोई आस फलती है, न कोई जोर चलता है
तुम्हारी याद छलती है, तुम्हारा प्यार जलता है
मरण की डोर में झूलूँ! कि दृग की कोर में झूलूँ
मसकता है कलेजा, बंद कोई फूल हो जैसे
लुटी जाती जवानी व्यर्थ, पथ की धूल हो जैसे
कि जीवन भार हों जैसे, कि जीवन भूल हो जैसे
धरा के बीच धँस जाऊँ, कि उड़कर व्योम को छू लूँ!
बहुत दुख है, बहुत दुख है कि अब झेला नहीं जाता
बहुत दिन खेल यह खेला कि अब खेला नहीं जाता
हृदय में बस गया जो मीत अलबेला, नहीं जाता
बिखर कर ओस बन जाऊँ, ठउफनकर मेघ-सा फूलूँ!
तुम्हें मैं किस तरह भूलूँ! तुम्हें मैं किस तरह भूलूँ!
1954