aayu banee prastavana

धूप न रचती, शीत चंद्रिका, गिरि के शिखर न रजकण
नर के तन में क्‍यों दे डाला मुझको नारी का मन!

पीड़ा की वंशी प्राणों के पोर-पोर में बेधी
बात-बात में रो पड़तीं जो, ऐसी आँखें दे दीं
किससे कहूँ व्यथा अंतर की, तिल-तिल जलनेवाली !
ममता के तीरों से छाती छलनी जैसी छेदी

करुणा की धारा में बहता छिन्‍न सुमन-सा जीवन

उफन रही नस-नस में कैसी शीत रुधिर की ज्वाला!
पहना दी किसने प्राणों को यह कदंब की माला!
जीवन नहीं, मरण प्रिय लगता, स्वत्व न, सहज समर्पण
अपने ही अंतर का शोणित बना अधर की हाला

नयी सृष्टि सर्जन करता नित मेरा आत्म-विसर्जन

भाव-रूप में अटक, भटकता, वर्ण-वर्ण का लोभी
फूल नहीं, रुक-रुक छू लेता पथ के काँटों को भी
एकाकिनी डोलती वन-वन यह चेतना-कुमारी
ग्रहण करे उत्सर्ग प्राण का, ऐसा कोई हो भी

राधा बन जाऊँ मैं जिसकी, कहाँ श्याम मनमोहन!
धूप न रचती, शीत चंद्रिका, गिरि के शिखर न रजकण
नर के तन में क्‍यों दे डाला मुझको नारी का मन!

1955