ahalya

वन-वन सुगंध के बौर मौर से गये झूल
चोरों से भौरे, पौरों से खिल उठे फूल
शशि की बाँहों में विकल धरा-ज्योत्स्ना अकूल
संयम-नियमों के युग से पोषित मान भूल
जड़-चेतन मतवाले थे

झुक गये अधर मुनि के, प्यासा मरु सागर को
पलभर में ही ज्यों पी जाने को तत्पर हो
छवि बँधती नहीं, बाँधते भुज दृढ़, दृढ़तर हो
ढँकने आये जैसे पूनों के शशधर को
बादल काले-काले थे