ahalya

सहसा मुनिवर को देख कुशासन लिये काँख
बढ़ गया सुरप आँखों में भर वह मदिर आँख
रह गयी प्रणयिनी पड़ी शिला सी बिना पाँख
भूली प्रणाम भी स्वामी का बेसुध, अवाक्‌
भावांकित मूर्ति-कला-सी

ऋषि काँप उठे अंचल-सी उड़ती देख लाज
छा रहा, प्रिये! यह कैसा रूपोन्‍न्माद आज
अधरों पर नूतन रस, अंगों में नवल साज
आँखें चंचल, जैसे कटाक्ष का लिये व्याज
नभ को आतुर चपला-सी’