ahalya
मैं कली, सूँघ सब जिसे निमिष भर दें उछाल?
मैं रत्न कि रख लें जिसको युग-युग तक सँभाल?
मैं जीवन-तरु का मूल कि उसका आल-बाल?
मैं विष की प्याली हूँ कि अमृत से भरा थाल?
हे वृद्ध पितामह! बोलो
‘अधरों में मदिरा लिये न उसको सकूँ बाँट
कामना मुक्ति की मूँदे पलकों के कपाट
जितना पढ़ती हूँ, उतना ही चिर-गूढ़ पाठ
मेरे अंतर की यह रहस्य की मधुर गाँठ
खोलो, खोलो, द्रुत खोलो