bhakti ganga
तू ही तू जब दाँयें-बायें
चिंता क्या मुझको फिर कितने भी दुख-संकट आयें!
वंशी ओठों पर ले लूँगा
बालू में नौका खे लूँगा
हँस-हँसकर पथ की झेलूँगा
कुल बाधा-विपदायें
कर्मपाश यद्यपि न कटेगा
मन तो विषयों से पलटेगा
कभी ध्यान से तू न हटेगा
मार्ग लाख भटकायें
काल-वधिक के आने के क्षण
देखेगा तेरी ही छवि, मन
फैला देगा चिर-अशंक बन
उसकी ओर भुजायें
तू ही तू जब दाँयें-बायें
चिंता क्या मुझको फिर कितने भी दुख-संकट आयें!