bhakti ganga

अब कहाँ बसेरा अपना!
धीरे धीरे लघु होता जाता है घेरा अपना

मन अब और कहाँ तक भागे
सीमाहीन शून्य है आगे
क्या संग्रह कर ले! क्या त्यागे!

उठता डेरा अपना

कैसे पाश छिन्न कर पाये
यह निज से विमुक्त हो जाये
कैसे निकट तुम्हारे आये

लिये अँधेरा अपना

फूल धूल में, गंध पवन में
नष्ट हो रहा सब क्षण-क्षण में
सोच रहा हूँ मैं, ‘इस तन में

क्या है मेरा अपना?’

अब कहाँ बसेरा अपना!
धीरे धीरे लघु होता जाता है घेरा अपना