bhakti ganga
मन! तू अब भी तोष न माने
तो फिर कौन, कहाँ तक तेरा मुँह भरने की ठाने!
माँग नयी तेरी क्षण-क्षण की
दे क्या तुझको निधि त्रिभुवन की!
ला दे सुधा-सरित नंदन की
तेरी प्यास बुझाने!
तारे एक-एक से बढ़कर
माना, चमक रहे हैं नभ पर
पर सोचा भी उनपर, जो वर
दिये तुझे स्रष्टा ने!
यदि तू नीचे दृष्टि फिराता
तो क्या निज में शांति न पाता
क्यों प्रतिपल यों बुनता जाता
झूठे ताने- बाने!
मन! तू अब भी तोष न माने
तो फिर कौन, कहाँ तक तेरा मुँह भरने की ठाने!